पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१५६

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श्रीमद्भगवद्गीता न एव किंचित् करोमि इति युक्तः समाहितः सन् आत्माके यथार्थ खरूपका नाम तत्त्व है उसको मन्येत चिन्तयेत् तत्त्ववित् आत्मनो याथात्म्यं जाननेवाला तत्त्वज्ञानी--परमार्थदर्शी, समाहित होकर तत्त्वं वेत्ति इति तत्ववित् परमार्थदर्शी इत्यर्थः। ऐसे माने कि मैं कुछ भी नहीं करता । कदा कथं वा तत्त्वम् अवधारयन् मन्येत तत्त्वको समझकर कब और किस प्रकार ऐसे इति उच्यते-

माने ? सो कहते हैं-

पश्यशृण्वन्स्पृशञ्जिघनश्नन्गच्छत्वपश्चसन् ॥ ८॥ प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्भिषन्निमिषन्नपि । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥ ६ ॥ मन्येत इति पूर्वेण संबन्धः। ( देखता, सुनता, छता, मयता, न्याला, चलता, सोता, श्वास लेता, बोलता, त्याग करता, ग्रहण करना तथा आँखांको खोलता और मूंदता हुआ भी इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषय में वर्त रही हैं ऐसे समझकर ) ऐसे माने कि मैं कुछ भीनहीं करता। इस प्रकार इसका पहलेके आधे इलोकसे सम्बन्ध है। यस्य एवं तत्त्वविदः सर्वकार्यकरणचेवासु ! जो इस प्रकार तत्वज्ञानी है अवीत अब इन्द्रियाँ कर्मसु अकर्म एव पश्यतः सम्यग्दर्शिनः तस्य और अन्तःकरणोंकी चेष्टामय काम अकर्म देखने- ! बाला है, वह अपनमें कोका अगाव देवता है, सर्वकर्मसंन्यासे एव अधिकारः कर्मणः अभाव- इसलिये उस यथार्थ ज्ञानीका सर्वकर्मसंन्यासमें दर्शनात् । ही अधिकार है। न हि मृगतृष्णिकायाम् उदकबुद्ध्या पानाथ क्योंकि मृगतृष्णिकामें जन्ट समझकर उसको प्रवृत्त उदकाभावज्ञाने अपि तत्र एव पान-

पीनेके लिये प्रवृत्त हुआ मनुष्य उसमें जलके

प्रयोजनाय प्रवर्तते ॥ ८-९॥ । अभावका ज्ञान हो जाने पर फिर भी वहीं जल पीने- के लिये प्रवृत्त नहीं होता ।। ८-९॥ यः तु पुनः अतत्त्ववित्' प्रवृत्तः च परन्तु जी तत्वज्ञानी नहीं है और कर्मयोगमें कर्मयोगे- | लगा हुआ है ( यानी) ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥१०॥ ब्रह्मणि ईश्वरे आधाय निक्षिप्य तदर्थं करोमि । जो 'स्वाभीके लिये कर्म करनेवाले नौकरकी इति भृत्य इव स्वाम्यर्थं सर्वाणि कर्माणि मोक्षे कोको ईश्वरमें अर्पण करके यहाँतक कि मोक्षरूप भाँति मैं ईश्वरके लिये करता है इस भावसे सब अपि फले सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः सर्वकर्माणि । फलकी भी आसक्ति छोड़कर कर्म करता है ।