पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१५९

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RANDIRUARCHETA शांकरभाष्य अध्याय ५ किं विशेषणेन, सर्वो हि देही संन्यासी पू०-इस विशेषणसे क्या सिद्ध हुआ? संन्यासी असंन्यासी वा देहे एव आस्ते, तत्र अनर्थकं हो चाहे असंन्यासी, सभी जीव शरीरमें ही रहते विशेषणम् इति। हैं । इस स्थलमें विशेषण देना व्यर्थ है। उच्यते यः तु अज्ञो देही देहेन्द्रियसंघात- उ०-जो अज्ञानी जीव शरीर और इन्द्रियोंके संघातमात्रको आत्मा माननेवाले हैं वे सब 'घरमें मात्रात्मदर्शी स सर्वो गेहे भूमौ आसने वा आसे भूमिपर या आसनपर बैठता हूँ ऐसे ही माना इति मन्यते । न हि देहमात्रात्मदर्शिनो गेहे करते हैं क्योंकि देहमात्रमें आत्मबुद्धियुक्त अज्ञानियों- को 'घरकी भाँति शरीर में रहता हूँ' यह ज्ञान होना इव देहे आसे इति प्रत्ययः संभवति । सम्भव नहीं। देहादिसंघातव्यतिरिक्तात्मदर्शिनः तु देहे परन्तुं 'देहादि संघातसे आत्मा भिन्न है ऐसा जाननेवाले विवेकीको 'मैं शरीरमें रहता हूँ यह आसे इति प्रत्यय उपपद्यते । प्रतीति हो सकती है। परकर्मणां च परमिन् आत्मनि अविद्यया तथा निर्लेप आत्मामें अविद्यासे आरोपित जो परकीय ( देह-इन्द्रियादिके ) कर्म हैं, उनका विवेक- अध्यारोपितानां विद्यया विवेकज्ञानेन मनसा विज्ञानरूप विद्याद्वारा मनसे संन्यास होना भी संन्यास उपपद्यते । सम्भव है। उत्पन्नविवेकज्ञानस्य सर्वकर्मसंन्यासिनः जिसमें विवेक-विज्ञान उत्पन्न हो गया है, ऐसे सर्वकर्मसंन्यासीका भी घरमें रहनेकी भाँति नौ द्वार- अपि गेहे इव देहे एव नवद्वारे पुरे आसनम्, वाले शरीररूप पुरमें रहना प्रारब्ध-कोंके अवशिष्ट प्रारब्धफलकर्मसंस्कारशेषानुवृत्त्या देहे एव देहे एव संस्कारोंकी अनुवृत्तिसे बन सकता है, क्योंकि शरीरमें ही प्रारब्धफलभोगका विशेष ज्ञान होना विशेषविज्ञानोत्पत्तेः। सम्भव है। देहे एव आस्ते इति अस्ति एव विशेषणफलं अतः ज्ञानी और अज्ञानीकी प्रतीतिके भेदकी अपेक्षासे 'देहे एव आस्ते' इस विशेषणका फल विद्वदविद्वत्प्रत्ययभेदापेक्षत्वात् । है। यद्यपि कार्यकरणकर्माणि अविद्यया यद्यपि 'कार्य, करण और कर्म जो अविद्यासे आत्मामें आरोपित हैं उन्हें छोड़कर रहता है' ऐसा आत्मनि अध्यारोपितानि संन्यस्य आस्ते कहा है तथापि आत्मासे नित्य सम्बन्ध रखनेवाले इति उक्तं तथापि आत्मसमवायि तु कर्तृत्वं कर्तापन और करानेकी प्रेरकता ये दोनों भाव तो उस कारयितृत्वं च स्याद् इति आशङ्कय आह- (आत्मा) में रहेंगे ही ? इस शंकापर कहते हैं- न एव कुर्वन् स्वयं न कार्यकरणानि कारयन् । खयं न करता हुआ और शरीर-इन्द्रियादिसे न करवाता हुआ अर्थात् उनको कोंमें प्रवृत्त न करता हुआ (रहता है)। अवश्य क्रियासु प्रवर्तयन् ।