पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१६०

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श्रीमद्भगवद्गीता किं यत् तत् कर्तृत्वं कारयितृत्वं च देहिनः ५०--जैसे गमन करनेवालेकी गति गमनरूप स्वात्मसमवाथि सत् संन्यासात् न भवति व्यापारका त्याग करनेसे नहीं रहती, वैसे ही आत्मा- यथा मच्छतो गतिः गमनन्यापारपरित्यागे में जो कर्तृत्व और कारयितृत्व हैं वह क्या आत्मा- न स्यात् तद्वत्, किं वा खत एव आत्मनो के नित्य सम्बन्धी होते हुए ही संन्याससे नहीं नास्ति इति। रहते ? अथवा स्वभावसे ही आत्मामें नहीं हैं ? अत्र उच्यते न अस्ति आत्मनः स्वतः कर्तृत्वं उ०-आत्मामें कर्तृत्व और कारयितृत्व स्वभाव- कारयितृत्वं च । उक्तं हि--‘अविकार्योऽयमुच्यते से ही नहीं हैं। क्योंकि यह आत्मा विकार- रहित कहा जाता है। हे कौन्तेय ! यह आत्मा 'शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते' इति । शरीरमे स्थित हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है। ऐसा कह चुके हैं एवं ध्यान ध्यायतीव लेलायतीव' (बृ० उ० ४ । ३ । ४) करता हुआ-सा क्रिया करता हुआ-सा ।' इति च श्रुतेः ॥१३॥ इस श्रुतिसे भी यही सिद्ध होता है ॥१३॥ न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ १४ ॥ न कर्तृत्वं कुरु इति न अपि कर्माणि स्थघट- देहादिका स्वामी आत्मा न तो 'तृ अमुक कर्म कर' प्रासादादीनि ईप्सिततमानि लोकस्य सृजति इस प्रकार लोगोंके कर्त्तापनको उत्पन्न करता है, और न रथ, घट, महल आदि कर्म, जो अत्यन्त उत्पादयति प्रभुः आत्मा, न अपि स्थादि इष्ट हैं उनको रचता है तथा न रथादि बनानेवालेका कृतवतः तत्फलेन संयोग न कर्मफलसंयोगम् । उसके कर्म-फलके साथ संयोग ही रचता है। यदि किंचिद् अपि स्वतो न करोति न यदि यह देहादिका स्वामी आत्मा स्वयं कुछ भी कारयति च देही का तर्हि कुर्वन् कारयन् च नहीं करता-कराता, तो फिर यह सब कॉन कर रहा प्रवर्तते इति उच्यते । और करा रहा है ? इसपर कहते हैं- स्वभावः तु खो भावः स्वभावः अविद्या- खभाव ही बर्तता है, अर्थात् जो अपना भाव है, अविद्या जिसका स्वरूप है, जो 'देवी हि' लक्षणा प्रकृतिः माया प्रवर्तते 'दैवी हि इत्यादिना इत्यादि श्लोकोंसे आगे कही जानेवाली है, वह प्रकृति वक्ष्यमाणा ॥१४॥ । यानी माया ही सब कुछ कर रही है ॥१४॥ परमार्थतः तु-- वास्तवमें तो- नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ १५ ॥