पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१६

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श्रीहरिः ॐ तत्सद्ब्रह्मणे नमः श्रीमद्भगवद्गीता शांकरभाष्य हिन्दीभाषानुवादसहित ( उपोद्घात) ॐ नारायणः परोऽव्यक्तादण्डमव्यक्तसंभवम् । अण्डस्थान्तस्त्विमे लोकाः सप्तद्वीपा च मेदिनी ॥ अव्यक्तसे अर्थात् मायासे श्रीनारायण-आदिपुरुष सर्वथा अतीत ( अस्पृष्ट ) हैं, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अव्यक्त--प्रकृतिसे उत्पन्न हुआ है, ये भूः, भुवः आदि सब लोक और सात द्वीपोंवाली पृथिवी ब्रह्माण्डके अन्तर्गत हैं। स भगवान् सृष्ट्वा इदं जगत् तस्य च इस जगत्को रचकर इसके पालन करनेकी स्थिति चिकीर्षुः मरीच्यादीन् अग्रे सृष्ट्वा इच्छावाले उस भगवान्ने पहले मरीचि आदि प्रजापतीन् प्रवृत्तिलक्षणं धर्म ग्राहयामास प्रजापतियोंको रचकर उनको वेदोक्त प्रवृत्तिरूप वेदोक्तम् । धर्म ( कर्मयोग) ग्रहण करवाया । ततः अन्यान् च सनकसनन्दनादीन् फिर उनसे अलग सनक, सनन्दनादि ऋषियोंको उत्पाद्य निवृत्तिलक्षणं धर्म ज्ञानवैराग्यलक्षणं उत्पन्न करके उनको ज्ञान और वैराग्य जिसके लक्षण हैं । ग्राहयामास । ऐसा निवृत्तिरूप धर्म ( ज्ञानयोग ) ग्रहण करवाया। द्विविधो हि वेदोक्तो धर्मः, प्रवृत्तिलक्षणो वेदोक्त धर्म दो प्रकारका है-एक प्रवृत्तिरूप, निवृत्तिलक्षणः च । दूसरा निवृत्तिरूप। जगतः स्थितिकारणं प्राणिनां साक्षात् । जो जगतकी स्थितिका कारण तथा प्राणियों- अभ्युदयनिःश्रेयसहेतुः यः स धर्मो ब्राह्मणाद्यः की उन्नतिका और मोक्षका साक्षात् हेतु है एवं कल्याणकामी ब्राह्मणादि वर्णाश्रम-अवलम्बियोंद्वारा वर्णिभिः आश्रमिभिः च . श्रेयोऽथिभिः जिसका अनुष्ठान किया जाता है उसका नाम अनुष्ठीयमानः।

धर्म है।