पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१७

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२ श्रीमद्भगवद्गीता दीर्पण कालेन अनुष्ठातॄणां कामोद्भवात् बहुत कालके बाद, जब धर्मानुष्ठान करनेवालोंके अन्तःकरणमें कामनाओंका विकास होनेसे विवेक- हीयमानविवेकविज्ञानहेतुकेन अधर्मेण अभि- विज्ञानका ह्रास हो जाना ही जिसकी उत्पत्तिका भूयमाने धर्म प्रवर्धमाने कारण है ऐसे अधर्मसे धर्म दबता जाने लगा और अधर्म, | अधर्मकी वृद्धि होने लगी तब जगत्की स्थिति जगतः स्थिति परिपिपालयिषुः स आदिकर्ता सुरक्षित रखनेकी इच्छावाले वे आदिकर्ता नारायण- नामक श्रीविष्णुभगवान् भूलोकके ब्रह्मकी अर्थात् नारायणाख्यो विष्णुः भौमस्य ब्रह्मणो | भूदेवों ( ब्राह्मणों ) के प्राह्मणत्वकी रक्षा करनेके ब्राह्मणत्वस्थ रक्षणार्थ देवक्यां वसुदेवात् अंशसे ( लीलाविग्रहसे ) श्रीकृष्णरूपमें प्रकट हुए। लिये श्रीवसुदेवजीसे श्रीदेवकीजीके गर्भ में अपने अंशेन कृष्णः किल संबभूव । यह प्रसिद्ध है। ब्राह्मणत्वस्य हि रक्षणेन रक्षितः स्याद ब्राह्मणत्वकी रक्षासे ही वैदिक धर्म सुरक्षित रह वैदिको धर्मः तदधीनत्वात् वर्णाश्रमभेदानाम् । सकता है क्योंकि वर्णाश्रमोंके भेद उसीके अधीन हैं। स च भगवान् ज्ञानेश्वर्यशक्तिबलवीर्य- ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज तेजोभिः सदा संपन्नः त्रिगुणात्मिकां वैष्णवीं आदिसे सदा सम्पन्न वे भगवान्, यद्यपि अज, खां मायां मूलप्रकृति वशीकृत्य अजः | अविनाशी, सम्पूर्ण भूतोंके ईश्वर और नित्य शुद्ध- अव्ययो भूतानाम् ईश्वरो नित्यशुद्धबुद्ध- बुद्ध-मुक्त-स्वभाव हैं, तो भी अपनी त्रिगुणात्मिका मुक्तस्वभावः अपि सन् खमायया देहवान् मूल प्रकृति वैष्णवी मायाको वशमें करके अपनी इव जात इव च लोकानुग्रहं कुर्वन् इव | लीलासे शरीरधारीकी तरह उत्पन्न हुए-से और लोगों- लक्ष्यते । पर अनुग्रह करते हुए-से दीखते हैं। स्वप्रयोजनामावे अपि भूतानुजिघृक्षया अपना कोई प्रयोजन न रहनेपर भी भगवान्ने वैदिकं हि धर्मद्वयम् अर्जुनाय शोकमोहमहोदधौ भूतोंपर दया करनेकी इच्छासे, यह सोचकर कि अधिक गुणवान् पुरुषोंद्वारा ग्रहण किया हुआ और निमग्नाय उपदिदेश, गुणाधिकैः हि आचरण किया हुआ धर्म अधिक विस्तारको प्राप्त गृहीतः अनुष्ठीयमानः च धर्मः प्रचयं होगा, शोकमोहरूप महासमुद्रमें डूबे हुए अर्जुनको गमिष्यति इति । दोनों ही प्रकारके वैदिक धर्मोंका उपदेश किया । तं धर्म भगवता यथोपदिष्टं वेद- उक्त दोनों प्रकारके धर्मोको भगवान्ने जैसे-जैसे व्यासः सर्वज्ञो भगवान् गीताख्यैः सप्तभिः | कहा था ठीक वैसे ही सर्वज्ञ भगवान् वेदव्यासजीने श्लोकशतैः उपनिबबन्ध । गीतानामक सात सौ श्लोकोंके रूपमें ग्रथित किया । तत् इदं गीताशास्त्रं समस्तवेदार्थसार- ऐसा यह गीताशास्त्र सम्पूर्ण वेदार्थका सार-संग्रह- संग्रहभूतं दुर्विज्ञेयार्थम् । ! रूप है और इसका अर्थ समझनेमें अत्यन्त कठिन है।