पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१८१

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"'. शांकरभाष्य अध्याय ६ ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा ज्ञान शास्त्रोक्तपदार्थानां शास्त्रोक्त पदार्थोंको समझनेका नाम 'ज्ञान' है परिज्ञान विज्ञानं तु शास्त्रतो ज्ञातानां तथा । और शास्त्रसे समझे हुए भावोंको वैसे ही अपने अन्तःकरणमें प्रत्यक्ष अनुभव करनेका नाम 'विज्ञान' एव खानुभवकरणं ताभ्यां ज्ञानविज्ञानाम्यां है, ऐसे 'ज्ञान' और 'विज्ञान' से जिसका अन्तःकरण तृप्तः संजातालंप्रत्यय आत्मा अन्तःकरणं यस्य तृप्त है अर्थात् जिसके अन्तःकरणमें ऐसा विश्वास उत्पन्न स ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा, कूटस्थः अप्रकम्प्यो हो गया है कि 'बस, अब कुछ भी जानना बाकी नहीं है ऐसा जो ज्ञान- -विज्ञानसे तृप्त हुए अन्तःकरणवाला भवति इत्यर्थः । विजितेन्द्रियः च । य ईदृशो कूटस्थ-अविचल और जितेन्द्रिय हो जाता है, वह युक्तः समाहित इति स उच्यते कथ्यते । युक्त यानी समाहित ( समाधिस्थ ) कहा जाता है । स योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनो लोष्टाश्म- वह योगी मिट्टी, पत्थर और सुवर्णको समान समझने- काञ्चनानि समानि यस्य स समलोष्टाश्म- वाला होता है अर्थात् उसकी दृष्टिमें मिट्टी, पत्थर काञ्चनः ॥८॥ और सोना सब समान हैं (एक ब्रह्मरूप है ) ||८|| । तथा-- । सुहृन्मित्रायुदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु । साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिविशिष्यते ॥ ६ ॥ सुहृदित्यादिश्लोकार्धम् एकं पदम् । 'सुहृत्' इत्यादि आधा श्लोक, एक पद सुहृद् इति प्रत्युपकारम् अनपेक्ष्य उपकर्ता। 'सुहृत्'-प्रत्युपकार न चाहकर उपकार करनेवाला, मित्रं स्नेहवान् । अरिः शत्रुः। उदासीनो न | 'मित्र'-प्रेमी, 'अरि'-शत्रु, 'उदासीन'-पक्षपात- कस्यचित् पक्षं भजते । मध्यस्थो यो विरुद्धयोः | रहित, 'मध्यस्थ'-जो परस्पर विरोध करनेवाले दोनों- उभयोः हितैषी । द्वेष्य आत्मनः अप्रियः। का हितैषी हो, 'द्वेष्य'-अपना अप्रिय और 'बन्धु'-- बन्धुः सम्बन्धी इति एतेषु साधुषु शास्त्रानुवर्तिषु अपना कुटुम्बी, इन सबमें तथा शास्त्रानुसार चलने- अपि च पापेषु प्रतिषिद्धकारिषु सर्वेषु एतेषु पापियोंमें भी जो समबुद्धिवाला है; इन सबमें कौन वाले श्रेष्ठ पुरुषोंमें और निषिद्ध कर्म करनेवाले समबुद्धिः कः किंकर्मा इति अव्यामृतबुद्धिः कैसा क्या कर रहा है ऐसे विचारमें जिसकी बुद्धि इत्यर्थः । विशिष्यते विमुच्यते इति वा नहीं लगती है वह श्रेष्ठ है । अर्थात् ऐसा योगी सत्र पाठान्तरम् । योगारूढानां सर्वेषाम् अयम् उत्तम योगारूढ पुरुषोंमें उत्तम है । यहाँ विशिष्यते' के इत्यर्थः ॥९॥ स्थानमें 'विमुच्यते' ( मुक्त हो जाता है ) ऐसा पाठान्तर भी है ॥९॥