पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१८०

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श्रीमद्भगवद्गीता आत्मा एव बन्धुः आत्मा एच रिपुः आत्मन आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना इति उक्तम्, तत्र किंलक्षण आत्मनो बन्धुः किं- शत्रु है यह बात कही गयी, उसमें किन लक्षणोंवाला लक्षणो वा आत्मनो रिपुः इति उच्यते- | पुरुष तो ( आप ही ) अपना मित्र होता है और कौन ( आप ही) अपना शत्रु होता है ? सो कहा । जाता है- बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः । अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥ ६॥ बन्धुः आत्मा आत्मनः तस्य तस्य आत्मन: उस जीवात्माका तो वही आप मित्र है कि स आत्मा बन्धुः येन आत्मना आत्मा एव | जिसने खयमेव कार्य-करणके समुदाय शरीररूप जितः आत्मा कार्यकरणसंघातो येन | आत्माको अपने वशमें कर लिया हो अर्थात् जो वशीकृतो जितेन्द्रिय इत्यर्थः । अनात्मनः तु | जितेन्द्रिय हो । जिसने (कार्य-करणके संघात) अजितात्मनः तु शत्रुत्वे शत्रुभावे वर्तेत आत्मा ; शरीररूप आत्माको अपने वशमें नहीं किया एव शत्रुवत्, यथा अनात्मा शत्रुः आत्मनः उसका वह आप ही शत्रुकी भाँति शत्रु-भावमें अपकारी तथा आत्मा आत्मनः अपकारे बर्तता है । अर्थात् जैसे दूसरा शत्रु अपना अनिष्ट वर्तेत इत्यर्थः॥६॥ करनेवाला होता है, वैसे ही वह आप ही अपना अनिष्ट करनेमें लगा रहता है ॥६॥ जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः । शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥ ७ ॥ जितात्मनः कार्यकरणादिसंघात आत्मा जितो | जिसने मन, इन्द्रिय आदिके संघातरूप इस येन स जितात्मा, तस्य जितात्मनः, प्रशान्तस्य | शरीरको अपने वशमें कर लिया है और जो प्रशान्त प्रसन्नान्तःकरणस्य सतः संन्यासिनः परमात्मा ! है-जिसका अन्तःकरण सदा प्रसन्न रहता है उस समाहितः साक्षाद् आत्मभावेन वर्तते इत्यर्थः । संन्यासीको भली प्रकारसे सर्वत्र परमात्मा प्राप्त है अर्थात् साक्षात् आत्मभावसे विद्यमान है। किं च शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा माने अपमाने तथा वह सर्दी-गर्मी और सुख-दुःखमें एवं मान च मानापमानयोः पूजापरिभवयोः ॥७॥ और अपमानमें यानी पूजा और तिरस्कारमें भी (सम हो जाता है) ॥७॥ ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः । युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥ ८॥