पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१९

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श्रीमद्भगवद्गीता तथा च इमम् एव अर्थम् अभिसंधाय इसी अर्थको लक्ष्यमें रखकर आगे कहेंगे कि, वक्ष्यति-'ब्रह्मण्याघाय कर्माणि' योगिनः कर्म 'कोंको ब्रह्ममें अर्थण कर योगिजन आसक्ति छोड़- कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये' इति । | कर आत्मशुद्धिके लिये कर्म करते हैं' इत्यादि । इमं द्विप्रकारं धर्म निःश्रेयसप्रयोजनं परमकल्याण ही जिनका प्रयोजन है, ऐसे इन दो परमार्थतत्त्वं च बासुदेवाख्यं परं ब्रह्म अभिधेय- प्रकारके धर्मोको और लक्ष्यभूत वासुदेवनामक परब्रह्मरूप परमार्थतत्त्वको विशेषरूपले अभिव्यक्त भूतं विशेषतः अभिव्यञ्जयत् विशिष्टप्रयोजन- (प्रकट) करनेवाला यह गीताशास्त्र, असाधारण सम्बन्धाभिधेयवत् गीताशास्त्रम् । प्रयोजन, सम्बन्ध और विषयवाला है। यतः तदर्थे विज्ञाते समस्तपुरुषार्थसिद्धिः ऐसे इस ( गीताशास्त्र ) का अर्थ जान लेनेपर समस्त पुरुष सिद्धि होती है, अतएव इसकी अत: तद्विवरणे यत्नः क्रियते मया । व्याख्या करने के लिये मैं प्रयत्न करता हूँ।