पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१८

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शांकरभाष्य ( उपोद्घात) - तदर्थाषिष्करणाय अनेकैः विवृतपदपदार्थ- यद्यपि उसका अर्थ प्रकट करनेके लिये अनेक पुरुषोंने पदच्छेद, पदार्थ, वाक्यार्थ और आक्षेप, वाक्यान्यायम् अपि अत्यन्तविरुद्धानेकार्थ- समाधानपूर्वक उसकी विस्तृत व्याख्याएँ की हैं, तो स्वेन लौकिकैः गृह्यमाणम् उपलभ्य अहं भी लौकिक मनुष्योंद्वारा उस गीताशास्त्रका अनेक प्रकारसे (परस्पर) अत्यन्त विरुद्ध अनेक अर्थ ग्रहण विवेकतः अर्थनिर्धारणार्थ संक्षेपतो विवरणं किये जाते देखकर, उसका विवेकपूर्वक अर्थ निश्चित करिष्यामि। करनेके लिये मैं संक्षेपले व्याख्या करूंगा। तस्य अस्य गीताशास्त्रस्य संक्षेपत: संक्षेपमें इस गीताशास्त्रका प्रयोजन परमकल्याण प्रयोजनं परं निःश्रेयसं सहेतुकस्य संसारस्य अर्थात् कारणसहित संसारकी अत्यन्त उपरति हो अत्यन्तोपरमलक्षणम् । तत् च सर्वकर्मसंन्यास- जाना है, वह ( परम कल्याण ) सर्वकर्मसंन्यास- पूर्वकात् आत्मज्ञाननिष्ठारूपात् धर्मात् भवति । पूर्वक आत्मज्ञाननिष्ठारूप धर्म से प्राप्त होता है । तथा इमम् एव गीतार्थधर्मम् उद्दिश्य इसी गीतार्थरूप धर्मको लक्ष्य करके स्वयं भगवान् ने ही अनुगीतामें कहा है कि, 'ब्रह्मके परमपदको भगवता एव उक्तम् ‘स हि धर्मः सुपर्याप्तो ब्रह्मणः (मोक्षको) प्राप्त करने के लिये वह (गीतोक्त ज्ञान- पदवेदने' इति अनुगीतासु । निष्ठारूप) धर्म ही सुसमर्थ है।' किं च अन्यदपि तत्रैव उक्तम् - इसके सिवा वहीं ऐसा भी कहा है कि, 'जो न धर्मी, न अधर्मी और न शुभाशुभी होता है तथा 'नैव धर्मी न चाधमी न चैव हि शुभाशुभी । जो कुछ भी चिन्तन न करता हुआ तूष्णीभावसे एक जगदाधार ब्रह्म में लीन हुआ रहता है। यः स्यादेकासने लीनस्तूष्णीं किञ्चिदचिन्तयन् ॥' उसको पाता है)।' 'ज्ञानं संन्यासलक्षणम्' इति च । यह भी कहा है कि, 'ज्ञानका लक्षण (चिह्न) संन्यास है।' इह अपि च अन्ते उक्तम् अर्जुनाय-- यहाँ ( गीताशास्त्र में ) भी अन्तमें अर्जुनसे कहा है- 'सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज' इति सब धर्मोको छोड़करएकमात्र मेरी शरणमें आजा।' अभ्युदयार्थः अपि यः प्रवृत्तिलक्षणो धर्मो । अभ्युदय-सांसारिक उन्नति ही जिसका फल है वर्णाश्रमान् च उद्दिश्य विहितः स देवादि- ऐसा जो प्रवृत्तिरूप धर्म, वर्ण और आश्रमोंको स्थानप्राप्तिहेतुः अपि सन् ईश्वरार्पणबुद्ध्या लक्ष्य करके कहा गया है, वह यद्यपि स्वर्गादिकी प्राप्तिका ही साधन है तो भी फलंकामना छोड़कर अनुष्ठीयमानः सत्त्वशुद्धये भवति फलाभि- ईश्वरार्पणबुद्धिसे किया जानेपर अन्तःकरणकी सन्धिवर्जितः। शुद्धि करनेवाला होता है। शुद्धसत्त्वस्य च ज्ञाननिष्ठायोग्यताप्राप्ति- तथा शुद्धान्तःकरण पुरुषको पहले ज्ञाननिष्ठाकी द्वारेण ज्ञानोत्पत्तिहेतुत्वेन च निःश्रेयसहेतुत्वम् । योग्यता प्राप्ति कराकर फिर ज्ञानोत्पत्तिका कारण होने- अपि प्रतिपद्यते। से (वह प्रवृत्तिरूप धर्म) कल्याणका भी हेतु होता है।