पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२१६

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श्रीमद्भगवद्गीता तस्य एव परस्य ब्रह्मणः प्रतिदेह उसी परब्रह्मका जो प्रत्येक शरीरमें अन्तरात्म- प्रत्यगात्मभावः स्वभावः । स्वभावः अध्यात्मम् । भाव है उसका नाम स्वभाव है, वह स्वभाव ही 'अध्यात्म' कहलाता है। उच्यते । आत्मानं देहम् अधिकृत्य प्रत्यगात्मतया अभिप्राय यह कि आत्मा यानी शरीरको आश्रय बनाकर जो अन्तरात्मभावसे उसमें रहनेवाला है प्रवृत्तं परमार्थब्रह्मावसानं वस्तु स्वभावः ! और परिणाममें जो परमार्थ ब्रह्म ही है वही तत्त्व स्वभाव हैं, उसे ही अध्यात्म कहते हैं अर्थात् वही अध्यात्मम् उच्यते अध्यात्मशब्देन अभिधीयते। अध्यात्म नामसे कहा जाता है । भूतभावोद्भवकरो भूतानां भावो भूतभावः "भूतभाव-उद्धव-कर' अर्थात् भूतोंकी सत्ता 'भूत- तस्य उद्भवो भूतभावोद्भवः तं करोति इति भाव' है । उसका उद्भव ( उत्पत्ति ) 'भूतभावोद्भव' भूतभावोद्भवकरो भूतवस्तूत्पत्तिकर इत्यर्थः । है, उसको करनेवाला 'भूतभायोडूबकर' यानी भूत- विसर्गो विसर्जनं देवतोद्देशेन चरुपुरोडाशादेः देवोंके उद्देश्य से चरु, पुरोडाश आदि ( हवन वस्तुको उत्पन्न करनेवाला, ऐसा जो विसर्ग अर्थात् द्रव्यस्य परित्यागः स एष विसर्गलक्षणो करनेयोग्य ) द्रव्योंका त्याग करना है, वह यज्ञः, कर्मसंज्ञितः कर्मशब्दित इति एतत् । त्यागरूप यज्ञ, कर्म नामसे कहा जाता है। इस एतस्माद् हि बीजभूताद् वृष्टयादिक्रमेण बीजरूप यज्ञसे ही वृष्टि आदिके क्रमसे स्थावर- स्थावरजङ्गमानि भूतानि उद्भवन्ति ॥३॥ जङ्गम समस्त भूतप्राणी उत्पन्न होते हैं ॥ ३ ॥ अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् । अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥ ४ ॥ अधिभूतं प्राणिजातम् अधिकृत्य भवति जो प्राणिमात्रको आश्रित किये होता है उसका इति । कः असौ क्षरः क्षरति इति क्षरो नाम अधिभूत है । वह कौन है ? क्षर-जो कि क्षय विनाशी भावो यत्किंचिद् जनिमद् वस्तु होता है ऐसा विनाशी भाव यानी जो कुछ भी उत्पत्ति- इत्यर्थः। शील पदार्थ हैं वे सब-के-सब अधिभूत हैं। पुरुषः पूर्णम् अनेन सर्वम् इति पुरि शयनाद् पुरुष अर्थात् जिससे यह सब जगत् परिपूर्ण है अथवा जो शरीररूप पुरमें रहनेवाला होनेसे वा पुरुष आदित्यान्तर्गतो हिरण्यगर्भः सर्व- | पुरुष कहलाता है, वह सब प्राणियोंके इन्द्रियादि करणोंका अनुग्राहक सूर्यलोकमें रहनेवाला हिरण्य- प्राणिकरणानाम् अनुग्राहक सः अधिदैवतम् । गर्भ अधिदैवत है ।