पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२१५

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अष्टमोऽध्यायः 'ते ब्रह्म तद्विदुः कृतम्' इत्यादिना: 'ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्वम्' इत्यादि वचनोंसे भगवता अर्जुनस्य प्रश्नवीजानि उपदिष्टानि : (पूर्वाध्यायमें ) भगवान्ने अर्जुनके लिये प्रश्नके अतः तत्प्रश्नार्थम् -- वीजोंका उपदेश किया था, अतः उन प्रश्नोंको अर्जुन उवाच- पूछनेके लिये अर्जुन बोला- किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम । अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ॥ १ ॥ अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन । प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ॥ २ ॥ हे पुरुषोत्तम ! वह ब्रह्मतत्त्व क्या है ? अध्यात्म क्या है ? कर्म क्या है ? अविभूत किसको कहते हैं ? अधिदैव किसको कहते हैं ? हे मधुसूदन ! इस देहमें अधियज्ञ कौन है और कैसे है ? तथा संयतचित्त- वाले योगियोंद्वारा आप मरण-कालमें किस प्रकार जाने जा सकते हैं ? ॥ १-२ ।। एषां प्रश्नानां यथाक्रमं निर्णयाय- इन प्रश्नोंका क्रमसे निर्णय करनेके लिये श्रीभगवानुवाच- श्रीभगवान् बोले- अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते । भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥३॥ अक्षरं न क्षरति इति परमात्मा 'एतस्य वा परम अक्षर ब्रह्म, है अर्थात् 'हे मार्गि ! इस अक्षरके शासनमें ही यह सूर्य और चन्द्रमा धारण अक्षरस्य प्रशासने गार्गि' (बृह० ३ । ८ । ९) किये हुए स्थित हैं' इत्यादि श्रुतियों से जिसका वर्णन किया गया है, जो कभी नष्ट नहीं होता वह इति श्रुतेः। ! परमात्मा ही 'ब्रह्म है। 'परम विशेषणसे युक्त होनेके कारण यहाँ ओंकारस्य च 'ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म इति अक्षर शब्दसे 'ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म' इस वाक्यमें परेण विशेषणाद् अग्रहणम् परमम्' इति च वर्णित ओंकारका ग्रहण नहीं किया गया है. क्योंकि 'परम' यह विशेषण निरतिशय अक्षर ब्रह्ममें ही निरतिशये ब्रह्मणि अक्षरे उपपन्नतरं विशेषणम्। अधिक सम्भव-युक्तियुक्त है।