पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२२६

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श्रीमद्भगवद्गीता पर तसाद् इति उक्तम्, कस्मात् पुनः परः, उससे पर है ऐसा कहा, सो किससे पर है ? पूर्वोक्ताद् भूतग्रामबीजभूताद् अविद्यालक्ष- वह उस पूर्वोक्त भूत-समुदायके बीजभूत अविद्या- णाद् अव्यक्तात् । सनातनः चिरंतनः । यः स , रूप अव्यक्तसे परे है। ऐसा जो सनातन भाव अर्थात् भावः सर्वेषु भूतेषु ब्रह्मादिषु नश्यत्सु न | सदासे होनेवाला भाव है, वह ब्रह्मादि समस्त प्राणियों- विनश्यति ॥२०॥ का नाश होनेपर भी नष्ट नहीं होता ॥२०॥ अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् । यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ २१॥ यः असौ अव्यक्तः अक्षर इति उक्तः तम् एव जो वह 'अव्यक्त' 'अक्षर' ऐसे कहा गया है अक्षरसंज्ञकम् अव्यक्तं भावम् आहुः परमां प्रकृष्ट उसी अक्षरनामक अव्यक्तभावको परम-श्रेष्ठ गति गतिम् । यं भावं प्राप्य गत्वा न निवर्तन्ते संसाराय कहते हैं । जिस परम भावको प्राप्त होकर ( मनुष्य) तद् धाम स्थानं परमं प्रकृष्टं मम विष्णोः परमं फिर संसारमें नहीं लौटते, वह मेरा परम श्रेष्ट स्थान पदम् इत्यर्थः ॥२१॥ है अर्थात् मुझ विष्णुका परमपद है ॥२१॥ तल्लब्धेः उपाय उच्यते- उस परमधामकी प्राप्तिका उपाय बतलाया जाता है- पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया । यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥ २२ ॥ पुरुषः पुरि शयनात् पूर्णत्वाद् वा स परः शरीररूप पुरमें शयन करनेसे या सर्वत्र परिपूर्ण पार्थ परो निरतिशयो यस्मात् पुरुषाद् न परं होनेसे परमात्माका नाम पुरुष है । हे पार्थ ! वह किंचित् स भक्त्या लभ्यः तु ज्ञानलक्षणया निरतिशय परमपुरुष, जिससे पर (सूक्ष्म-श्रेष्ठ ) अन्य कुछ भी नहीं है, जिस पुरुषके अन्तर्गत समस्त आत्मविषयया–यस्य पुरुषस्य कार्यरूप भूत स्थित हैं—क्योंकि कार्य कारणके अन्तःस्थानि मध्यस्थानि कार्यभूतानि भूतानि । अन्तर्वर्ती हुआ करता है और जिस पुरुषसे यह कार्य हि कारणस्य अन्तर्वतिं भवति । सारा संसार आकाशसे घट आदिकी भाँति व्याप्त है। येन पुरुषेण सर्वम् इदं जगत् ततं व्याप्तम् ऐसा परमात्मा, अनन्य भक्तिसे अर्थात् आत्मविषयक आकाशेन इव घटादि ॥२२॥ ज्ञानरूप भक्तिसे प्राप्त होने योग्य है ॥२२॥ अनन्यया