पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२५

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१० श्रीमद्भगवद्गीता इसलिये हे माधव ! अपने कुटुम्बी धृतराष्ट्र-पुत्रों को मारना हमें उचित नहीं है, क्योंकि अपने कुटुम्बको नष्ट करके हम कैसे सुखी होंगे ? ॥३७॥ यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः । कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥ ३८ ॥ यद्यपि लोभके कारण जिनका चित्त भ्रष्ट हो चुका है ऐसे ये कौरव कुलक्षय जनित दोषको और मित्रों के साथ वैर करने में होनेवाले पापको नहीं देख रहे हैं ॥३८॥ कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् । कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥ ३६॥ तो भी हे जनार्दन ! कुलनाशजन्य दोषको भली प्रकार जाननेवाले हमलोगोंको इस पापसे बचनेका उपाय क्यों नहीं खोजना चाहिये ? ॥३९॥ कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः । धर्म नष्ट कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥ ४० ॥ ( यह तो सिद्ध ही है कि ) कुलका नाश होनेसे सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं और धर्मका नाश होनेसे सारे कुलको सब ओरसे पाप दबा लेता है ||४०॥ अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः । स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः॥ ४१ हे कृष्ण ! इस तरह पापसे घिर जानेपर उस कुलकी स्त्रियाँ दृषित हो जाती हैं, हे वार्ष्णेय ! स्त्रियोंके दूषित होनेपर उस कुलमें वर्णसंकरता आ जाती है ॥४१॥ संकरो नरकायैव कुलन्नानां कुलस्य च । पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥ ४२ ॥ वह वर्णसंकरता उन कुलघातियों को और कुलको नरकमें ले जानेका कारण बनती है, क्योंकि उनके पितरलोग पिण्डक्रिया और जलक्रिया नष्ट हो जानेके कारण अपने स्थानसे पतित हो जाते हैं ॥४२॥ दोषैरेतैः कुलमानां वर्णसंकरकारकैः। उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥ ४३ ॥ ( इस प्रकार ) वर्णसंकरताको उत्पन्न करनेवाले उपर्युक्त दोषोंसे उन कुलधातियोंके सनातन कुलधर्म और जातिधर्म नष्ट हो जाते हैं ॥४३॥ उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन । नरके नियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥४४॥