पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२६

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शांकरभाष्य अध्याय १ हे जनार्दन ! जिनके कुलधर्म नष्ट हो चुके हैं ऐसे मनुष्यों का निस्सन्देह नरकमें वास होता है, ऐसा हमने सुना है ।। ४४ ॥ अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् । यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥ ४५ ॥ अहो ! शोक है कि, हमलोग बड़ा भारी पाप करनेका निश्चय कर बैठे हैं, जो कि इस राज्यसुखके लोभसे अपने कुटुम्बका नाश करनेके लिये तैयार हो गये हैं ॥ ४५ ॥ यदि मामप्रतीकारमशसं शस्त्रपाणयः । धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥ ४६॥ यदि मुझ शस्त्ररहित और सामना न करनेवालेको ये शस्त्रधारी धृतराष्ट्रपुत्र ( दुर्योधन आदि ) रणभूमि- में मार डालें तो वह मेरे लिये बहुत ही अच्छा हो ॥ ४६॥ संजय उवाच- एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये स्थीपस्थ उपाविशत् । विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥ ४७॥ संजय बोला-उस रणभूमिमें वह अर्जुन इस प्रकार कहकर वागोंसहित धनुषको छोड़ शोकाकुल- चित्त हो रथके ऊपर (पहले सैन्य देखनेके लिये जहाँ खड़ा हुआ था वहीं) बैठ गया ।। ४७ ॥ इति श्रीमहाभारते शतसाहस्रयां संहितायां वैयासिक्यो पर्वणि श्रीमद्भगवद्गीता- सूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषाद- योगो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१॥