पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२७९

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Financessary mzan 11-..------ शांकरभाष्य अध्याय ११ अथवा विषयविशेषणं स्थाने इति, युक्तो अथवा 'स्थाने यह शब्द विषयका विशेषण भी हर्षादिविषयो भगवान् । यत ईश्वरः सर्वात्मा समझा जा सकता है । भगवान् हर्ष आदिके विषय हैं, यह मानना भी ठीक ही है। क्योंकि ईश्वर सर्वभूतमुहत् च इति । सबका आत्मा और सब भूतोंका मुहद है । तथा अनुरज्यते अनुरागं च उपैति तत् यहाँ ऐली व्याख्या करनी चाहिये कि जगत् जो च विषये इति व्याख्येयम् । किं च रक्षांसि . भगवान्में अनुराग-प्रेम करता है, यह उसका भीतानि भयाविष्टानि दिशो द्रवन्ति गच्छन्ति अनुराग करना उचित विषयमें ही है, तथा राक्षसगण तद् च स्थाने विषये । सर्वे नमत्यन्ति भयसे युक्त हुए सब दिशाओंमें भाग रहे हैं यह भी ठीक-ठिकानेकी ही बात है । एवं समस्त कपिलादि नमस्कुर्वन्ति च सिद्धसंघाः सिद्धानां समुदायाः सिद्धोंके समुदाय जो नमस्कार कर रहे हैं, यह भी कपिलादीनां तत् च स्थाने ॥३६॥ उचित विषयमें ही है ।। ३६ ॥ भगवतो हर्षादिविषयत्वे हेतुं दर्शयति- भगवान् हर्षादि भावोंके योग्य स्थान किस प्रकार हैं ? इसमें कारण दिखाते हैं - कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिक । अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ॥ ३७॥ कस्मात् च हेतोः ते तुभ्यं न नमेरन् न हे महात्मन् ! आप जो अतिशय गुरुतर हैं नमस्कुयुः हे महात्मन् गरीयसे गुरुतराय यतो अर्थात् सबसे बड़े हैं, उनको ये सब किसलिये ब्रह्मणो हिरण्यगर्भस्य अपि आदिकर्ता कारणम् आदिकर्ता- नमस्कार न करें, क्योंकि आप हिरण्यगर्भके भी f-कारण हैं अतः आप आदिकर्ताको अतः तस्माद् आदिक: कथम् एते न कैसे नमस्कार न करें । अभिप्राय यह कि उपर्युक्त नमस्कुर्युः । अतो हर्षादीनां नमस्कारस्य च कारणसे आप हर्षादिके और नमस्कारके योग्य स्थानं त्वम् अहो विषय इत्यर्थः । पात्र हैं। हे अनन्त देवेश जगन्निवास त्वम् अक्षरं तत् हे अनन्त ! हे देवेश ! हे जगन्निवास ! वह परम : परं यद् वेदान्तेषु श्रूयते । अक्षर (ब्रह्म) आप ही हैं, जो वेदान्तोंमें सुना जाता है। किं तत्, सद् असद् विद्यमानम् असत् च वह क्या है ? सत् और असत्-जो विद्यमान : यत्र नास्ति इति बुद्धिः ते उपधानभूते सदसती होती है वह असत् है। वे दोनों सत् और असत् ! है वह सत् और जिसमें 'नहीं है' ऐसी बुद्धि यस्य अक्षरस्य, यवारेण सद् असद् इति जिस अक्षरकी उपाधि हैं, जिनके कारण वह ब्रह्म | उपचारसे 'सत् और असत्' कहा जाता है परन्तु उपचर्यते । परमार्थतः तु सदसतः परं तद् । वास्तवमें जो सत् और असत् दोनोंसे परे है, जिसको वेदवेत्ता लोग अक्षर कहते हैं, वह ब्रह्म यद् अक्षरं वेदविदो बदन्ति तत् त्वम् एव न भी आप ही हैं । अभिप्राय यह कि आपसे अन्यद् इति अभिप्रायः ॥ ३७॥ अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है ॥ ३७ ।। -KOK . i