पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२८

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शांकरभाष्य अध्याय २ T T न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः । यानेब हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥ ६ ॥ हम यह नहीं जानते कि हमारे लिये क्या करना अच्छा है, (पता नहीं इस युद्धमें ) हम जीतेंगे या वे हमको जीतेंगे। ( अहो ) जिनको मारकर हम जीवित रहना भी नहीं चाहते वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़े हैं ॥ ६ ॥ कार्पण्यदोषोपहतखभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमृढचेताः । यच्छ्रेयः स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥ ७ ॥ कायरतारूप दोषसे नष्ट हुए स्वभाववाला और धर्मका निर्णय करनेमें मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ, जो निश्चित की हुई हितकर बात हो वह मुझे बतलाइये । मैं आपका शिष्य हूँ, आपके शरणमें आये हुए मुझ दासको उपदेश दीजिये ॥ ७॥ न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् । अवाप्य भूमावसपत्नमृद्ध राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥ ८॥ क्योंकि पृथिवीमें निष्कंटक धन-धान्य-सम्पन्न राज्यको या देवताओंके स्वामित्वको पाकर भी मैं ऐसा कोई उपाय नहीं देख रहा हूँ जो मेरी इन्द्रियोंके सुखानेवाले शोकको दूर कर सके ॥ ८ ॥ संजय उवाच--- एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप । । न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥ ६ ॥ संजय बोला-हे शत्रुतापन धृतराष्ट्र ! निद्राविजयी अर्जुन अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णसे इस प्रकार कह चुकनेके बाद साफ-साफ यह बात कहकर कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, चुप हो गया ॥ ९ ॥ तमुवाच हषीकेशः प्रहसन्निव भारत सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः॥१०॥ हे भारत ! इस तरह दोनों सेनाओंके बीचमें शोक करते हुए उस अर्जुनसे भगवान् श्रीकृष्ण मुस्कराकर यह वचन कहने लगे ॥ १०॥ । . : अत्र च-'दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम्” इत्यारभ्य यहाँ दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम्' इस श्लोकसे 'न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह' इति | लेकर 'न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं एतदन्तः प्राणिनां शोकमोहादिसंसारवीज-! बभूव ह' इस श्लोकतकके ग्रन्थकी व्याख्या यों कर लेनी चाहिये कि, यह प्रकरण, प्राणियोंके शोक, मोह भृतदोषोद्भवकारणप्रदर्शनार्थत्वेन व्याख्येयो आदि जो संसारके बीजभूत दोष हैं, उनकी उत्पत्ति- का कारण दिखलाने के लिये है। ग्रन्थः।