पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२९

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श्रीमद्भगवद्गीता तथा हि अर्जुनेन राज्यगुरुपुत्रमित्रसुहृत्स्व- क्योंकि कथं भीष्ममहं संख्ये' इत्यादि श्लोकों- जनसंबन्धिवान्धवेषु 'अहम् एषां मम एते' इति द्वारा अर्जुनने इसी तरह राज्य, गुरु, पुत्र, मित्र, एवं भ्रान्तिप्रत्ययनिमित्तस्नेहविच्छेदादिनिमित्तौ सुहृद वजन, सम्बन्धी और बान्धवों के विषय में 'यह मेरे हैं' 'मैं इनका हूँ' इस प्रकार अज्ञानजनित आत्मनः शोकमोही प्रदर्शितौ 'कथं भीष्ममहं स्नेह-विच्छेद आदि कारणोंसे होनेवाले अपने शोक संख्ये' इत्यादिना। और मोह दिखाये हैं। शोकमोहाभ्यां हि अभिभूतविवेकविज्ञान यद्यपि ( वह अर्जुन ) स्वयं ही पहले क्षात्रधर्म- | रूप युद्ध में प्रवृत्त हुआ था तो भी शोक-मोहके द्वारा स्वत एव क्षात्रधर्मे युद्धे प्रवृत्तः अपि तस्मात् विवेक-विज्ञानके दब जानेपर ( वह ) उस युद्धसे युद्धात् उपरराम ! परधर्म च भिक्षाजीवनादिकं रुक गया और भिक्षाद्वारा जीवन-निर्वाह करना आदि दूसरोंके धर्मका आचरण करनेके लिये कतुं प्रववृते । प्रवृत्त हो गया। तथा च सर्वप्राणिनां शोकमोहादिदोषा- इसी तरह शोक-मोह आदि दोषोंसे जिनका चित्त विष्टचेतसां स्वभावत एव स्वधर्मपरित्यागः | घिरा हुआ हो, ऐसे सभी प्राणियोंसे स्वधर्मका त्याग प्रतिषिद्धसेवा च स्यात् । और निषिद्ध धर्मका सेवन स्वाभाविक ही होता है। स्वधर्मे प्रवृत्तानाम् अपि तेषां वामनः- यदि वे स्वधर्मपालनमें लगे हुए हों तो. भी कायादीनां प्रवृत्तिः फलाभिसंधिपूर्विका एवं उनके मन, वाणी और शरीरादिकी प्रवृत्ति फलाकांक्षा- साहंकारा च भवति । पूर्वक और अहंकारसहित ही होती है । तत्र एवं सति धर्माधर्मोपचयात् इष्टानिष्ट- ऐसा होनेसे पुण्य-पाप दोनों बढ़ते रहनके जन्मसुखदुःखसंप्राप्तिलक्षणः संसारः अनुपरतो | संसार निवृत्त नहीं हो पाता, अतः शोक और मोह कारण अच्छे-बुरे जन्म और सुख-दुःखोंकी प्राप्तिरूप भवति, इत्यतः संसारवीजभूतौ शोकमोहौं । यह दोनों संसारके बीजरूप हैं। तयोः च सर्वकर्मसंन्यासपूर्वकात् आत्म- इन दोनोंकी निवृत्ति सर्व कर्म-संन्यासपूर्वक आत्मज्ञानके अतिरिक्त अन्य उपायप्से नहीं हो ज्ञानात् न अन्यतो निवृत्तिः इति, तदुपदि- सकती। अतः उसका ( आत्मज्ञानका ) उपदेश दिक्षुः सर्वलोकानुग्रहार्थम् अर्जुनं निमित्तीकृत्य करनेकी इच्छावाले भगवान् वासुदेव सब लोगोंपर. अनुग्रह करनेके लिये अर्जुनको निमित्त बनाकर आह भगवान् वासुदेवा---'अशोच्यान्' इत्यादि। कहने लगे-'अशोच्यान्' इत्यादि । तत्र केचित् आहुः, सर्वकर्मसंन्यासपूर्वकात् इसपर कितने ही टीकाकार कहते हैं कि केवल आत्मज्ञाननिष्ठामात्रात् एव केवलात् कैवल्यं । सर्व-कर्म-संन्यासपूर्वक आत्मज्ञान-निष्ठामात्रसे ही न प्राप्यते एव, किं तर्हि अग्निहोत्रादिश्रौतस्सा- कैवल्यकी ( मोक्षकी ) प्राप्ति नहीं हो सकती, किन्तु अग्निहोत्रादि श्रौत-स्मात-कर्मोंसहित ज्ञानसे मोक्ष- तकर्मसहितात् ज्ञानात् कैवल्यप्राप्तिः इति की प्राप्ति होती है, यही सारी गीताका निश्चित सर्वासु गीतासु निश्चितः अर्थ इति । अभिप्राय है।