पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४३

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शांकरभाष्य अध्याय २ २७ तत्र अनाशिनो नित्यस्य इति द्विविधेन अतः ‘अविनाशी' और 'नित्य इन दो विशेषणों- का यह अभिप्राय है कि इस आत्माका दोनों अपि नाशेन असंबन्धः अस्य इत्यर्थः । प्रकारके ही नाशसे सम्बन्ध नहीं है। अन्यथा पृथिव्यादिवत् अपि नित्यत्वं ऐसे नहीं कहा जाता तो आत्माका नित्यत्व भी स्यात् आत्मनः तत् मा भूत् इति नित्यस्य | पृथ्वी आदि भूतोंके सदृश होता । परन्तु ऐसा नहीं होना चाहिये, इसलिये इसको 'अविनाशी' और अनाशिन इति आह। 'नित्य कहा है। अप्रमेयस्य न यस्य प्रत्यक्षादिप्रमाणः प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे जिसका स्वरूप निश्चित नहीं अपरिच्छेद्यस्य इत्यर्थः। किया जा सके वह अप्रमेय है। ननु आगमेन आत्मा परिच्छिद्यते प्रत्यक्षा- पू०-जब कि वेदवाक्योंद्वारा आत्माका स्वरूप निश्रित किया जाता है, तब प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे दिना च पूर्वम् । उसका जान लेना तो पहले ही सिद्ध हो चुका (फिर वह अप्रमेय कैसे है ?) न, आत्मनः स्वतासिद्धत्वात् । सिद्धे उ०-यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि आत्मा हि आत्मनि प्रमातरि प्रमित्सो प्रमाणान्वेषणा स्वतः सिद्ध है । प्रमातारूप आत्माके सिद्ध होनेके भवति। बाद ही जिज्ञासुकी प्रमाणविषयक खोज (शुरू) होती है। न हि पूर्वम् इत्थम् अहम् इति आत्मानम् क्योंकि 'मैं अमुक हूँ' इस प्रकार पहले अपनेको बिना जाने ही अन्य जाननेयोग्य पदार्थको जाननेके अप्रमाय पश्चात् प्रमेयपरिच्छेदाय प्रवर्तते । न लिये कोई प्रवृत्त नहीं होता । तथा अपना आपा हि आत्मा नाम कस्यचित् अग्नसिद्धो भवति ! किसीसे भी अप्रत्यक्ष ( अज्ञात ) नहीं होता है । शास्त्रंतु अन्त्यं प्रमाणम् अतद्धर्माध्यारोपण- शास्त्र जो कि अन्तिम प्रमाण है* वह आत्मामें मात्रनिवर्तकत्वेन प्रमाणस्थम् आत्मनि प्रति- किये हुए अनात्मपदार्थोके अध्यारोपको दूर करने- मात्रसे ही आत्माके विषयमें प्रमाणरूप होता है, पद्यते न तु अज्ञातार्थज्ञापकत्वेन । अज्ञात वस्तुका ज्ञान करवानेके निमित्तसे नहीं । तथा च श्रुतिः “यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म य ऐसे ही श्रुति भी कहती है कि 'जो साक्षात् अपरोक्ष है वही ब्रह्म है जो आत्मासबके हृदयमें आत्मा सर्वान्तरः' (बृ० ३।४।१) इति । व्याप्त है' इत्यादि । यसात् एवं नित्यः अविक्रियः च आत्मा जिससे कि आत्मा इस प्रकार नित्य और निर्विकार तस्मात् युध्यस्व युद्धात् उपरमं मा कार्षीः | सिद्ध हो चुका है, इसलिये तू युद्ध कर, अर्थात् इत्यर्थः। युद्धसे उपराम न हो।

  • प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम-इन तीन प्रमाणों में आगम अर्थात् शास्त्र अन्तिम प्रमाण है । जो यन्तु

शास्त्रद्वारा बतलायी जाती है वह पहलेसे किसी-न-क्रिसीद्वारा प्रत्यक्ष की हुई होती है या अनुमानसे समझी हुई होती है, यह युक्तियुक्त बात है, इस युक्तिको लेकर ही उपर्युक्त शंका है । उसका यह उत्तर दिया गया है ।