पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४२

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श्रीमद्भगवद्गीता व्येति। न अपि आत्मीयेन आत्मीयामावात, यथा तथा इसका कोई निजी पदार्थ नहीं होनेके कारण निजी पदार्थोंके नाशसे भी इसका नाश देवदत्तो धनहान्या व्येति न तु एवं बल नहीं होता, जैसे देवदत्त अपने धनकी हानिसे हानिवाला होता है, ऐसे ब्रह्म नहीं होता । अतः अव्ययस्य अस्य ब्रह्मणो विनाशं इसलिये कहते हैं कि इस अविनाशी ब्रह्मका विनाश न कश्चित् कर्तुम् अर्हति न कश्चित् आत्मानं करनेके लिये कोई भी समर्थ नहीं है । कोई भी अर्थात् विनाशयितुं शक्नोति ईश्वरः अपि । ईश्वर भी अपने आपका नाश नहीं कर सकता। आत्मा हि ब्रह्म स्वात्मनि च क्रिया- क्योंकि आत्मा ही स्वयं ब्रह्म है और अपने आपमें विरोधात् ॥ १७ ॥ । क्रियाका विरोध है ।। १७ ॥ । किं पुनः तत् असत् यत् स्वात्मसत्तां तो फिर वह असत् पदार्थ क्या है जो अपनी सत्ताको छोड़ देता है ? (जिसकी स्थिति बदल व्यभिचरति इति उच्यते-- जाती है ) इसपर कहते हैं- अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः । अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यत्र भारत ॥ १८॥ अन्तवन्तः अन्तो विनाशो विद्यते येषां ते जिनका अन्त होता है--विनाश होता है वे सब अन्तवन्तो यथा मृगतृष्णिकादौ सद्बुद्धिः | अन्तवाले हैं। जैसे मृगतृष्णादिमें रहनेवाली जल- विषयक सत्-बुद्धि प्रमागद्वारा निरूपण की जानेके अनुवृत्ता प्रमाणनिरूपणान्ते विच्छिद्यते स | बाद विच्छिन्न हो जाती है वही उसका अन्त है, वैसे ही तस्था अन्तः तथा इमे देहाः स्वममायादेहा- ये सब शरीर अन्तवान् हैं तथा स्वप्न और मायाके दिवत् च अन्तवन्तः। शरीरादिकी भाँति भी ये सब शरीर अन्तवाले हैं। नित्यस्य शरीरिणः शरीरवत: अनाशिनः इसलिये इस अविनाशी, अप्रमेय, शरीरधारी अप्रमेयस्य आत्मनः अन्तवन्त इति उक्ता | नित्य आत्माके ये सब शरीर विवेकी पुरुषोंद्वारा विवेकिभिः इत्यर्थः। अन्तवाले कहे गये हैं। यह अभिप्राय है। नित्यस्य अनाशिन इति न पुनरुक्तं नित्य- 'नित्य' और 'अधिनाशी' यह कहना पुनरुक्ति नहीं है, क्योंकि संसारमें नित्यत्वके और नाशके त्वस द्विविधत्वात् लोके नाशस्य च । दो-दो भेद प्रसिद्ध हैं। यथा देहो भस्मीभूतः अदर्शनं गतो नष्ट जैसे, शरीर जलकर भस्मीभूत हुआ अदृश्य होकर उच्यते विद्यमानः अपि अन्यथा परिणतो भी 'नष्ट हो गया' कहलाता है और रोगादिसे युक्त हुआ विपरीत परिणामको प्राप्त होकर विद्यमान व्याध्यादियुक्तो जातो नष्ट उच्यते । रहता हुआ भी 'नष्ट हो गया कहलाता है।