पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४६१

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Ramaya TARRINA . शांकरभाष्य अध्याय १८ सर्वधर्मान् सर्वे च ते धर्माः च सर्वधर्माः समस्त धमाको, अर्थात् जितने भी धर्म हैं उन तान् । धर्मशब्देन अन्न अधर्मः अपि गृह्यते सबको, यहाँ नैष्कर्म्य ( कर्मभाव का प्रतिपादन नैष्कर्म्यस्य विवक्षितत्वात् 'नाविरतो दुश्चरितात् करना है इसलिये 'धर्म शब्दले अधर्मका भी ग्रहण (का०३० ११२।२४) त्यज धर्ममधर्मं च (महाः हुआ' 'धर्म और अधर्म दोनोंको छोड़ इत्यादि किया जाता है । जो बुरे चरित्रोंसे विरक्त नहीं शां० ३२९ । ४०) इत्यादिश्रुतिस्मृतिभ्यः । श्रुति-स्मृतियों से भी यही सिद्ध होता है । सर्वधर्मान् परित्यज्य संन्यस्य सर्वकर्माणि सब धोको छोड़कर सर्व कोका संन्यास इति एतत् । माम् एकं सर्वात्मानं समं सर्वभूतस्थम् करके, मुझ एककी शरण में आ, अर्थात् सबका आत्मा, ईश्वरम् अच्युतं गर्भजन्मजरामरणविवर्जितम् सर्व भूतोंमें स्थित, ईश्वर, अच्युत तथा गर्भ, अहम् एव इति एवम् एकं शरणं व्रज न मत्तः इस प्रकार मुझ एकके दशरथा हो । अभिप्राय यह कि जन्म, जश और मरणसे रहित 'मैं ही हूँ अन्यद् अस्ति इति अवधारय इत्यर्थः । 'मुझसे अन्य कुछ है ही नहीं ऐसा निश्चय कर ! अहं त्वा त्वाम् एवं निश्चितबुद्धिं सर्वपापेभ्यः तुझ इस प्रकार निश्रयबालेको मैं अपना स्वरूप सर्वधर्माधर्मबन्धन रूपेभ्यो मोक्षयिष्यामि स्वात्म- प्रत्यक्ष कराके, समस्त धर्माधर्मवन्धनरूप पापोंसे भावप्रकाशीकरणेन । उक्तं च-नाशयाम्यात्म- स्थित हुआ प्रकाशमय ज्ञान-दीपकले ( अज्ञान- मुक्त कर दूंगा। पहले कहा भी है कि-'मैं हृदयमें भावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता' इति अतो मा जनित अन्धकारका) नाश करता हूँ' इसलिये शुचः शोकं. मा कार्षीः इत्यर्थः ॥६६॥ तू शोक न कर अर्थात् चिन्ता मत कर ॥६६॥ (शास्त्रके उपसंहारका प्रकरण) असिन् हि गीताशास्त्रे परं निःश्रेय- यह विचार करना चाहिये कि इस गीताशास्त्र में ससाधनं निश्चितं किं ज्ञानं किं कर्म वा निश्चय किया हुआ, परम कल्याण ( मोक्ष) का आहोखिद् उभयम् इति । साधन ज्ञान है या कर्म, अथवा दोनों ? -यह सन्देह क्यों होता है ? 'यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते' 'ततो मां तत्त्वतो उ०-'जिसको जानकर अमरताप्राप्त कर लेता विशते तदनन्तरम्' इत्यादीनि है 'तदनन्तर मुझे तत्त्वसे जानकर मुझमें ही वाक्यानि केवलाद् ज्ञानाद् निःश्रेयसप्राप्ति प्रविष्ट हो जाता है' इत्यादि वाक्य तो केवल ज्ञानसे दर्शयन्ति । 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' 'कुरु कमैव मोक्षकी प्राप्ति दिखला रहे हैं ! तथा 'तेरा कर्ममें ही इत्येवमादीनि - कर्मणाम् अवश्यकर्तव्यता अधिकार है' 'तू कर्म ही कर' इत्यादि वाक्य दर्शयन्ति । कोंकी अवश्य कर्तव्यता दिखला रहे हैं। एवं ज्ञानकर्मणोः कर्तव्यतोपदेशात इस प्रकार ज्ञान और कर्म दोनोंकी कर्तव्यताका उपदेश होनेसे, ऐसा संशय भी हो सकता है कि समुचित्तयोः अपि निश्रेयसहेतुत्वं स्थाइ सम्भवतः दोनों समुचित ( मिलकर) ही मोक्षके इति भवेत् संशयः। किं पुनरत्र मीमांसाफलम् । पू०--परन्तु इस मीमांसाका फल क्या होगा? ! कुतः संदेहः? साधन होंगे।