पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४६२

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श्रीमद्भगवद्गीता ननु एतद् एव एषाम् अन्यतमस्य परम- उ०-यही कि इन तीनोंमेंसे किसी एकको ही निश्रेयससाधनत्वावधारणम् । अतो विस्तीर्ण- परम कल्याणका साधन निश्चय करना । अतः इसकी तरं मीमांस्यम् एतत् । विस्तारपूर्वक मीमांसा कर लेनी चाहिये । (सिद्धान्तका प्रतिपादन) आत्मज्ञानस्य तु केवलस्य निःश्रेयस- केवल आत्मज्ञान ही परम कल्याण (मोक्ष) का हेतु (साधन) है, क्योंकि भेद-प्रतीतिका निवर्तक हेतुत्वं भेदप्रत्ययनिवर्तकत्वेन कैवल्यफलाव होने के कारण, कैवल्य (मोक्ष) की प्राप्ति ही सानत्वात् । उसकी अवधि है। क्रियाकारकफलभेदबुद्धिः अविद्यया आत्मामें क्रिया, कारक और फलविषयक भेद- आत्मनि नित्यप्रवृत्ता मम कर्म अहं कर्ता बुद्धि अविद्याके कारण सदासे प्रवृत्त हो रही है। 'कर्म मेरे हैं, मैं उनका कर्ता हूँ, मैं अमुक फलके अमुष्मै फलाय इदं कर्म करिष्यामि इति इयम् लिये यह कर्म करता हूँ' यह अविद्या अनादि- अविद्या अनादिकालप्रवृत्ता। कालसे प्रवृत्त हो रही है। अस्या अविद्याया निवर्तकम् अयम् अहम् 'यह केवल, (एकमात्र ) अकर्ता, क्रियारहित अस्मि केवलः अकर्ता अक्रियः अफलो न मत्तः और फलसे रहित आत्मा मैं हूँ, मुझसे भिन्न और कोई अन्यः अस्ति कश्चिद् इति एवंरूपम् भी नहीं हैं ऐसा आत्मविषयक ज्ञान इस अविद्याका आत्मविषयं ज्ञानम् उत्पद्यमानं कर्मप्रवृत्तिहेतु नाशक है, क्योंकि यह उत्पन्न होते ही, कर्म-प्रवृत्ति- भूताया भेदबुद्धेः निवर्तकत्वात् । की हेतुरूप भेदबुद्धिका नाश करनेवाला तुशब्दः पक्षद्वयव्यावृत्त्यर्थो न केवलेभ्यः! उपर्युक्त वाक्यमें 'तु' शब्द दोनों पक्षोंकी कर्मभ्यो न च ज्ञानकर्मभ्यां समुचिताभ्यां | निवृत्तिके लिये है । अर्थात् मोक्ष न तो केवल कर्मसे मिलता है और न ज्ञान-कर्मके समुच्चयसे ही । इस निःश्रेयसप्राप्तिः इति पक्षद्वयं निवर्तयति । प्रकार 'तु' शब्द दोनों पक्षोंका खण्डन करता है। अकार्यत्वात् च निश्रेयसस्य कर्मसाधन- मोक्ष अकार्य अर्थात् स्वतःसिद्ध है, इसलिये कर्मोको उसका साधन मानना नहीं बन सकता। स्वानुपपत्तिः। न हि नित्यं वस्तु कर्मणा ज्ञानेन क्योंकि कोई भी नित्य ( स्वतःसिद्ध ) वस्तु कर्म वा क्रियते। या ज्ञानसे उत्पन्न नहीं की जाती। केवलं ज्ञानम् अपि अनर्थक तहि ? पू०-तब तो केवल ज्ञान भी व्यर्थ ही है ? न, अविद्यानिवर्तकत्वे सति दृष्टकैवल्य- उ०-यह बात नहीं है, क्योंकि अविद्याका फलावसानत्वात् । अविद्यातमोनिवर्तकस्य पर्यन्तता प्रत्यक्ष है । अर्थात् जैसे दीपकके प्रकाश- नाशक होनेके कारण उसकी मोक्षप्राप्तिरूप फल- ज्ञानस्य कैवल्यफलावसानत्वम् । का, रज्जु आदि वस्तुओंमें होनेवाली सादिकी | भ्रान्तिको और अन्धकारको, नष्ट कर देना ही फल रज्ज्वादिविषये सर्पाद्यज्ञानतमोनिवर्तकप्रदीप- | है और जैसे उस प्रकाशका फल सर्पविषयक । ।