पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/६

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६ ॐ श्रीपरमात्मने नमः भूमिका श्रीमद्भगवद्गीता संसारके अनेकानेक धर्मग्रन्थोंमें एक विशेष स्थान रखती है । श्रीकृष्णभगवान् स्वयं इसके वक्ता हैं और उनका कहना है ‘गीता मे हृदयं पार्थ ।' अतएव गीता सनातनधर्मावलम्बियोंके हृदयकी राजेश्वरी हो, इसमें कोई आश्चर्य नहीं। साथ ही अन्य धर्मावलम्बियों एवं देश-देशान्तर- वासियोंद्वारा भी यह अति प्रशंसित है। इसका दिव्य सन्देश किसी जाति वा देशविशेषके ही लिये उपादेय नहीं, इसका अमूल्य उपदेश सार्वभौम है । अपनी-अपनी भावनाके अनुसार असंख्य मनुष्योंने गीताके उपदेशोंका अनुसरण कर संसारयात्राको सुखपूर्वक पूरा किया है, उसके दृढ़ आलम्बनसे वे केवल भवसागर ही पार नहीं उतरे, अपने और मनोरथोंकी भी सिद्धि कर सके हैं । गीता सर्वशास्त्रमयी है। समस्त शास्त्रोंका मथनकर अमृतमयी गीताका आविर्भाव हुआ है। सर्वसिद्धान्तोंका जैसा सुन्दर और युक्तियुक्त समन्वय गीतामें मिलता है वैसा अन्य किसी ग्रन्थमें कदाचित् ही उपलब्ध हो । मत-मतान्तरोंके वादविवाद, परम निःश्रेयसकी प्राप्तिके नाना मागोंकी बदाबदीका कोलाहल गीताके गम्भीर उपदेशमें शान्त होकर परस्पर सहायक हो जाता है । गीतामें नाना सिद्धान्तोंका एकीकरण ऐसी सुन्दरतासे किया गया है कि तत्त्व-जिज्ञासुको समस्त पथ एक ही राजमार्गकी ओर प्रवृत्त करते हैं । अधिकार और भावनाके अनुरूप हो साधनका आदेश मिल जाता है । एक और भी विशेषता इस ग्रन्थरत्नमें देखनेको मिलती है। मनुष्य के लिये उच्चतम आदर्शका निश्चय किया गया है और साथ ही उसको प्राप्त करनेके लिये उभ-से-सुलभ साधन ही बताये गये हैं। यही कारण है कि सात सौ श्लोककी छोटी-सी गीताको कामधेनु और कल्पवृक्षकी उपमा दी जाती है । महात्माओंने इसपर भाष्य रचकर आचार्यकी पदवी पायी । अनेक टीकाकारोंने अपनी बुद्धिको इस कसौटीपर कस पण्डित और ज्ञानोकी दुर्लभ ख्याति पायी और ज्ञानचक्षु प्रदानकर इसके तत्त्वानुसन्धानमें साधारण गतिके लोगोंको इसका मर्म हृदयङ्गम करनेमें सहायता प्रदान की। विद्याका परमलाम गीताके रहस्यको समझना ही माना गया है। आचार्योंने अपने-अपने सिद्धान्तोंकी प्रामाणिकता स्थापन करनेमें गीताको एक मुख्य आधार माना है। गीतापर भाष्य रच अपने सिद्धान्तोंको गीता-सम्मत बताना ही उनका लक्ष्य रहा है । गीता-विरोधी किसी धर्म वा सम्प्रदायका प्रचार वे असम्भव समझते और जिस धर्म, आचार वा सिद्धान्तको ब्रह्मरूपा गोतासे सिद्ध कर दिया, वह अवश्य ही सर्वशास्त्र और वेद-सम्मत मान लिया जाता है । सम्प्रदाय, जाति और देशकी भिन्नताका निराकरण करनेवाला गीता एक सार्वभौम सिद्धान्त- प्रतिपादक ग्रन्थ-रत्न है। उसके उपदेश और निर्दिष्ट साधनोंने मानव-जातिके लिये एक महान् धर्मकी नींव डाली है उसके प्रचारसे प्राणिमात्रका कल्याण सम्भव है। हृदय-दौर्बल्यपर विजयी होकर गीतोक्त उपदेशसे मनुष्य कर्मरत हो सकता है। वह भक्तिरसामृतका आस्वादन करता हुआ ज्ञानी बन सकता है। ऐहिक और पारमार्थिक दोनों ही सुखोंकी प्राप्ति उसे अल्प प्रयाससे ही उपलब्ध होनेमें कोई सन्देह नहीं रहता । आधुनिक कालमें जो अनेकानेक जटिल प्रश्न नित्यप्रति समाज और व्यक्तिके समक्ष उपस्थित होते रहते हैं और बुद्धिको चकरा देते हैं, उनके सुलझानेके लिये भी गीतामें P