पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पर्याप्त सामग्री विद्यमान है। परन्तु खेद तो यह है कि ऐसे अवसरोंपर गीतासे पूर्ण सहायता नहीं ली जाती । इस त्रुटिकी पूर्तिके लिये गीता-प्रचार ही एकमात्र उपाय है । गीताके अध्ययन, श्रवण आदिसे जो लाभ होता है उसको भगवान्ने स्वयं अर्जुनके प्रति अपने उपदेशकी समाप्तिमें कहा है। फिर गोता-प्रचारसे अधिक भगवत्प्रीत्यर्थ और कौन कार्य मनुष्यसे बन सकता है । भगवदाज्ञाको यथाशक्ति पालन करने और उन्हींके कल्याणकारी उपदेशोंके प्रचारकी प्रेरणासे गीताका यह संस्करण प्रकाशित हुआ है। शांकरभाष्यका छपा हुआ मूल तो सुलभ प्राप्त परन्तु मूलके साथ ही सरल हिन्दी-अनुवाद नहीं मिलता। नबल-किशोर-प्रेस, लखनऊसे प्रकाशित 'नवल-भाष्य' में कई संस्कृत भाष्य और टीकाएँ प्रकाशित हुई थीं परन्तु वह हिन्दी-अनुवाद स्वतन्त्र था तिसपर भी वह ग्रन्थ अप्राप्य है और मूल्य अत्यधिक होनेसे सुलभ नहीं, दूसरा ग्रन्थ जिसमें अद्वैत- सिद्धान्तकी टीकाएँ शांकरभाष्यके साथ छपी थीं वह कान्यकुब्ज श्रीजगन्नाथ शुक्लद्वारा सम्पादित होकर कलकत्तेसे प्रकाशित हुआ था । संवत् १९२७ का द्वितीय संस्करण हमारे देखनेमें आया है। इसमें भी हिन्दी-अनुवाद स्वतन्त्र है । शांकरभाष्यका अनुवाद नहीं है । और वह पुस्तक भी दुष्प्राप्य है। गोताका एक संस्करण उपादेय था। उसका प्रकाशन श्रीज्वालाप्रसाद भार्गवने आगरेसे किया था । इस पुस्तकका केवल उत्तरभाग हमारे पास है । लीथोकी छपी पुस्तक है, संवत् दिया नहीं है। इसमें शांकर और रामानुज-भाष्यके साथ तीन टीकाएँ भी दी हैं और भाषा-अनुवाद शंकरके आधारपर है। श्रीभार्गवजी बड़े विद्वान् थे। समग्र महाभारतको मूल और अनुवादसहित उन्होंने प्रकाशित किया था और वेदोंको भी अर्थसहित छापा था। उनके प्रति कृतज्ञता प्रकाश करना हमारा धर्म है । खेद यही है कि उनके ग्रन्थ कहीं खोजनेपर भी अब नहीं मिलते । इन बातोंके उल्लेखसे केवल यही तात्पर्य है प्रस्तुत ग्रन्थकी उपादेयता हमको स्वीकार करना अभीष्ट है । मूल और हिन्दी-अनुवाद शांकरभाष्यका इससे पहिले कहीं प्रकाशित हुआ है, ऐसा नहीं जान पड़ता । हिन्दी-भाषा-भाषियोंका परम सौभाग्य है जो अल्प मूल्यमें ही वे इस उच्च कोटिके ग्रन्थको, जिसपर इतनी टीकाएँ हो चुकी हैं अब सहजमें प्राप्त कर सकते हैं। हमारे धर्मग्रन्थोंमें गीताका क्या स्थान है और अन्य ग्रन्थोंसे उसका क्या सम्बन्ध है, विज्ञ सुधीजन भली प्रकार जानते हैं, उसका संक्षिप्त वर्णन ही पर्याप्त होगा। अखिल धर्मोंका मूल हिन्दूलोग वेदको मानते हैं। बेद खतःप्रमाण और ईश्वरको वाणी हैं । वेदकी आज्ञाके अनुसार धर्म और अधर्म-कार्यका अन्तिम निर्णय होता है। ईश्वरीय ज्ञान भी हमको वेदसे ही प्राप्त होता है। अन्य धर्मग्रन्थ वेदोक्त और वेद-प्रतिपादित धर्मको सुलभ रीतिसे समझाने के लिये निर्मित हुए हैं । वेद ही उनका आधार है। परन्तु वेदके दो भाग हैं-मन्त्र और ब्राह्मण । ब्राह्मण-भागके अन्तर्गत यज्ञादि कर्मकाण्ड हैं और दूसरा आरण्यक वा ज्ञानकाण्ड है। इसी ज्ञानकाण्डमें उपनिषदोंकी गणना है। प्राचीन शास्त्र और विद्याओंमें प्रायः एक उपनिषद्-भाग हुआ करता था जो तद्विषयक रहस्यमय ज्ञानकी शिक्षा देता था । उच्च कोटिके अधिकारी उसको गुरुमुखसे श्रवणकर प्राप्त कर सकते थे । साधारण जिज्ञासुओंको उस रहस्यमय तात्त्विक ज्ञानका अधिकारी नहीं समझा जाता था और उसकी प्राप्ति के लिये गुरुका उपदेश परमावश्यक माना जाता था।