पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/८३

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शांकरभाष्य अध्याय ३ 'व्युत्थायाथ भिक्षाचर्य चरन्ति ।' (बृ०३१५३ "सव प्रकारके भोगोंले विरक्त होकर भिक्षा- १) तस्मात्संन्यासमेषां तपसामतिरिक्तमाहुः । वृत्तिका अवलम्वन करते हैं । इसलिये इन सब ( ना० उ०२ । ७९) 'न्यास एवात्यरेचयत् तपोमें संन्यासको ही श्रेष्ठ कहते हैं।' 'संन्यास (ना० उ०२१७८ ) इति 'न कर्मणा न प्रजया ही श्रेष्ठ बताया गया है' 'न कर्मोंसे, न प्रजासे, धनेन त्यागेनैकेऽमृतत्वमानः (ना० उ०२।१२) नधनसे, पर केवल त्यागसे ही कई एक महापुरुष इति च । 'ब्रह्मचर्यादेव अव्रजेत्' (जाबा ० उ०४) अमृतत्वको प्राप्त हुए हैं।' 'ब्रह्मचर्यसे ही संन्यास इत्याद्याः श्रुतयः। ग्रहण करें।' इत्यादि श्रुतिवचन हैं । त्यज धर्ममधर्म च उभे सत्यानृते त्यज बृहस्पतिने भी कचसे कहा है कि 'धर्म और उभे सत्यानृते त्यक्त्वा येन त्यजसि तत्यज ॥ अधर्मको छोड़, सत्य और झूठ दोनों को छोड़, संसारमेव निःसारं दृष्ट्वा सारदिदृक्षया । सत्य और झूट दोनोंको छोड़कर जिस (अहंकार) से इनको छोड़ता है उसको भी छोड़ ! 'संसार- प्रव्रजन्त्यकृतोद्वाहाः परं वैराग्यमाश्रिताः ।। को साररहित देखकर परवैराग्यके आश्रित हुए इति बृहस्पतिः अपि कचं प्रति । पुरुष, सार वस्तुके दर्शनकी इच्छासे विवाह किये बिना (ब्रह्मचर्य-आश्रमसे) ही संन्यास ग्रहण करते हैं। कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया च विमुच्यते । व्यासजीने भी शुकदेवजीको शिक्षा देते समय । तस्मात्कर्म न कुर्वन्ति यतयः पारदर्शिनः॥ कहा है कि 'जीव कर्मोंसे बँधता है और शानसे (महा०शा ०२४११७)इति शुकानुशासनम्। कर्म नहीं करते।' मुक्त होता है इसलिये आत्मतत्त्वके ज्ञाता यति इह अपि 'सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्य' यहाँ (गीतामें)भी सब कर्मोंको मनसे छोड़कर' इत्यादि । इत्यादि वचन कहे हैं। मोक्षस्य च अकार्यत्वात् मुमुक्षोः कर्मा- मोक्ष अकार्य है अर्थात् किसी क्रियासे प्राप्त होने- नर्थक्यम् । वाला नहीं है, इससे भी मुमुक्षुके लिये कर्म व्यर्थ है । नित्यानि प्रत्यवायपरिहारार्थम् अनुष्ठेयानि पू०-यदि ऐसा कहें कि प्रत्यवाय* दूर करनेके लिये इति चेत् । नित्य-कोका अनुष्ठान करना आवश्यक है, तो ? न, असंन्यासिविषयत्वात् प्रत्यवायप्राप्ते, उ०-यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि प्रत्यवाय- की प्राप्ति संन्यासीके लिये नहीं, असंन्यासीके लिये न हि अग्निकार्यायकरणात् संन्यासिनः है । जो संन्यासी नहीं है, ऐसे कर्म करनेवाले । गृहस्थोंको और ब्रह्मचारियों को भी जिस प्रकार प्रत्यवायः कल्पयितुं शक्यो यथा ब्रह्मचारिणाम् | विहित कर्म न करनेसे प्रत्यवाय होता है, वैसे असंन्यासिनाम् अपि कर्मिणाम् । अग्निहोत्रादि कर्म न करनेसे संन्यासीके लिये प्रत्यवाय-प्राप्तिकी कल्पना नहीं की जा सकती।

  • विहित कर्मों का अनुष्ठान न करनसे जो पाप लगता है उसका नाम प्रत्यवाय है ।