पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/८२

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श्रीमद्भगवद्गीता एतद् अपि विरुद्धम् । कथम्, गृहस्थस्थ उ०--यह भी विरुद्ध है। क्योंकि 'गृहस्थके एव सातकर्मणा समुच्चिताद् ज्ञानात् मोक्ष: लिये ही केवल स्मार्त-कर्मके साथ मिले हुए ज्ञानसे मोक्षका प्रतिषेध किया है, दूसरे आश्रमबालोंके प्रतिषिध्यते न तु आश्रमान्तराणाम् इति कथं लिये नहीं'-यह विचारवान् मनुष्य कैसे मान विवेकिभिः शक्यम् अवधारयितुम् । सकते हैं ? किं च यदि मोक्षसाधनत्वेन स्मार्तानि दूसरी बात यह भी है कि यदि ऊर्ध्वरेताओंको मोक्षप्राप्ति के लिये ज्ञानके साथ केवल स्मार्त-कर्मके कर्माणि ऊर्ध्वरेतसां समुच्चीयन्ते तथा गृहस्थस्य | समुच्चयकी ही आवश्यकता है तो इस न्यायसे अपि इष्यतां सातैः एव समुच्चयो न श्रौतैः । | गृहस्थोंके लिये भी केवल स्मार्त-कर्मोके साथ ही ज्ञानका समुच्चय आवश्यक समझा जाना चाहिये, श्रौतकर्मों के साथ नहीं। अथ श्रौतैः सातैः च गृहस्थस्य एवं पू० -यदि ऐसा माने कि गृहस्थको ही मोक्षके लिये श्रौत और स्मार्त दोनों प्रकारके कर्मोके साथ समुच्चयो मोक्षाय ऊर्ध्वरेतसां तु स्मार्तकर्ममात्र- ज्ञानके समुच्चयकी आवश्यकता है, ऊर्ध्वरेताओंका समुच्चिताद् ज्ञानात् मोक्ष इति । तो केवल स्मार्त-कर्मयुक्त ज्ञानसे मोक्ष हो जाता है ? तत्र एवं सति गृहस्थस्य आयासबाहुल्यं उ०-ऐसा मान लेनेसे तो गृहस्थके ही सिरपर श्रौतं मात च बहुदुःखरूपं कर्म शिरसि विशेष परिश्रमयुक्त और अति दुःखरूप श्रौत-स्मार्त दोनों प्रकारके कर्मोंका बोझ लादना हुआ। अथ गृहस्थस्य एव आयासबाहुल्यकारणाद् पू०-यदि कहा जाय कि बहुत परिश्रम होनेके मोक्षः स्यात् न आश्रमान्तराणां श्रौतनित्यकर्म- कारण गृहस्थकी ही मुक्ति होती है, (अन्य आश्रमोंमें) श्रौत नित्यकर्मोंका अभाव होनेके कारण अन्य रहितत्वाद् इति । आश्रमवालोंका मोक्ष नहीं होता तो? तद् अपि असत् । सर्वोपनिषत्सु इतिहास- उ०-यह भी ठीक नहीं। क्योंकि सब उपनिषद्, पुराणयोगशास्त्रेषु च ज्ञानाङ्गत्वेन मुमुक्षोः सर्व- | इतिहास, पुराण और योगशास्त्रोंमें मुमुक्षुके लिये ज्ञानका अंग मानकर सब कर्मोंके संन्यासका कर्मसंन्यासविधानाद् आश्रमविकल्पसमुच्चय- विधान किया है तथा श्रुति-स्मृतियोंमें आश्रमोंके विधानात् च श्रुतिस्मृत्योः। विकल्प और समुच्चयका भी विधान है ।* सिद्धः तर्हि सर्वाश्रमिणां ज्ञानकर्मणोः पू०-तब तो सभी आश्रमवालों के लिये ज्ञान और कर्मका समुच्चय सिद्ध हो जाता है । न, मुमुक्षोः सर्वकर्मसंन्यासविधानात् । उ०-नहीं। क्योंकि मुमुक्षुके लिये सर्व कमोंके । त्यागका विधान है।

  • ब्रह्मचर्य से गृहस्थ, गृहस्थसे वानप्रस्थ और वानप्रस्थसे संन्यास ग्रहण करना चाहिये, यह समुच्चयका

विधान है और ब्रह्मचर्यसे अथवा गृहस्थसे या वानप्रस्थसे संन्यास ग्रहण करे, यह आश्रर्मोके विकल्पका विधान है। आरोपितं स्यात् । समुच्चयः।