उसके कारण क्षुद्र से क्षुद्र मनुष्य का भी लोग मत्सर करने
लगते हैं। क्रोधी मनुष्य प्रत्येक बात पर, प्रत्येक दुर्घटना पर
और प्रत्येक मनुष्य पर, बिना कारण अथवा बहुत ही थोड़े
कारण से, बिगड़ उठता है। यदि क्रोध का कारण बहुत बड़ा
हुआ तो वह उग्र रूप धारण करता है। और यदि उसका
कारण छोटा हुआ तो चिड़चिड़ाहट ही तक उसकी नौबत
पहुँचती है। अतएव, या तो वह प्रचंड होता है या उपहास-
जनक। दोनों प्रकार से वह बुरा होता है। क्रोध मनुष्य के
शरीर को भयानक कर देता है; शब्द को कुत्सित कर देता है;
आँखों को विकराल कर देता है; चेहरे को आग के समान
लाल कर देता है; बात-चीत को बहुत उग्र कर देता है। क्रोध
न तो मनुष्यता ही का चिह्न है और न स्वभाव के सरल किंवा
आत्मा के शुद्ध होने ही का चिह्न है। वह भीरुता अथवा मन की
क्षुद्रता का चिह्न है। क्योंकि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को
अधिक क्रोध आता है; नीरोग मनुष्यों की अपेक्षा रोगियों को;
युवा पुरुषों की अपेक्षा बुड्ढों को; और भाग्यवानों की अपेक्षा
अभागियों को। जो मनुष्य क्षुद्र हैं, उन्हीं को क्रोध शोभा देता
है; सज्ञान, उदार और सत्पुरुषों को नहीं।
जिसे क्रोध आता है, वह उसे ही दुःखदायक नहीं होता;
क्रोध के समय जो लोग वहाँ होते हैं, उनको भी वह दुःखदायक
हो जाता है। चार अदमियों के सामने किसी छोटे से अपराध
पर नौकर-चाकरों को बुरा-भला कहना और उन पर क्रोध
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