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क्रोध से बचने अथवा क्रोध को दूर करने के लिए क्रोध करना उचित नहीं। अपने ऊपर भी क्रोध करने से क्रोध बढ़ता है, घटता नहीं।

क्रोध से बचने के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने मन में दृढ़ता से पहले यह प्रण करे कि वह उस दिन क्रोध न करेगा, फिर चाहे उसकी कितनी ही हानि क्यों न हो। इस प्रकार प्रण करके उसे सजग रहना चाहिए। एक दिन बहुत नहीं होता। यदि वह एक दिन भी क्रोध को जीत लेगा तो दूसरे दिन भी वैसा ही प्रण करने के लिए उसमें साहस आ जायगा। तब उसे दो दिन क्रोध न करने के लिए प्रण करना उचित है। इस भाँति बढ़ाते बढ़ाते क्रोध न करने का स्वभाव पड़ जायगा। क्रोध मनुष्य का पूरा शत्रु है। उसके कारण मनुष्य का जीवन दुःखमय हो जाता है। जिसने क्रोध को जीत लिया, उसके लिए कठिन से कठिन काम करना सहल है।

क्रोध को बिलकुल ही छोड़ देना भी अच्छा नहीं। किसी को बुरा काम करते देख उसे पहले मीठे शब्दों से उपदेश देना चाहिए। यदि ऐसे उपदेश से वह उस काम को न छोड़े तो उस पर क्रोध भी करना उचित है। जिस क्रोध से अपने कुटुम्वियों, अपने इष्ट-मित्रों अथवा दूसरों का आचरण सुधरे; ईश्वर में पूज्य-बुद्धि उत्पन्न हो; दया, उदारता और परोपकार में प्रवृत्ति हो; वह क्रोध बुरा नहीं।

[जून १९०५.
 

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