पृष्ठ:संकलन.djvu/४३

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परस्पर एक दूसरे की आकांक्षा है। पर एक को दूसरे के काम में अनुचित हस्तक्षेप करना मुनासिब नहीं। जिस काम से किसी दूसरे का सम्बन्ध नहीं, उसे करने के लिए हर आदमी स्वाधीन है। न उसमें समाज ही को कोई दस्तन्दाज़ी करना चाहिए और न गवर्नमेंट ही को। पर हाँ, उस काम से किसी आदमी का अहित न होना चाहिए। ग्रन्थकार ने स्वाधीनता के सिद्धा- न्तों का प्रतिपादन बड़ी ही योग्यता से किया है। उसकी विवेचना-शक्ति की जितनी प्रशंसा की जाय, कम है। उसने प्रतिपक्षियों के आक्षेपों का बहुत ही मज़बूत दलीलों से खण्डन किया है। उसकी तर्कना प्रणाली खूब सरल और प्रमाण-पूर्ण है।

स्वाधीनता का दूसरा अध्याय सब अध्यायों से अधिक महत्त्व का है। इसी से वह औरों से बड़ा भी है। इस अध्याय में जो बातें हैं, उनके जानने की आजकल बड़ी ही ज़रूरत है। आदमी का सुख विशेष करके उसकी मानसिक स्थिति पर अवलम्बित रहता है। मानसिक स्थिति अच्छी न होने से सुख की आशा करना दुराशा मात्र है। विचार और विवेचना करना मन का धर्म है। अतएव उनके द्वारा मन को उन्नत करना चाहिए। मनुष्य के लिए सबसे अधिक अनर्थकारक बात विचार और विवेचना का प्रतिबन्ध है। जिसे जैसे विचार सूझ पड़ें, उसे उन्हें साफ़ साफ़ कहने देना चाहिए। इसी में मनुष्य का कल्याण है। इसी से, जितने सभ्य देश हैं, उनकी गवर्नमेंटों ने सब लोगों को यथेच्छ विचार, विवेचना और आलोचना

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