पृष्ठ:संकलन.djvu/७६

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जिस देश के निवासी संसार ही को मायामय, अतएव दुःख का मूल कारण समझते हैं, वे धन को कदापि सुख का हेतु नहीं मान सकते।

बहुत धनवान् होना व्यर्थ है। उससे कोई लाभ नहीं। क्योंकि साधारण रीति पर खाने-पीने और पहनने आदि के लिए जो धन काम आता है, वही सफल है। उससे अधिक धन होने से कोई काम नहीं निकलता। स्वभाव अथवा प्रकृति के अनुसार खाने ही पीने की आवश्यकताओं को दूर करने के लिए धन की चाह होती है। दूसरों को दिखलाने अथवा उसे स्वयं देखने के लिए धन इकट्ठा करने से कोई लाभ नहीं। कोई जगत्-सेठ ही क्यों न हो, यदि वह सितार या वीणा बजाना सीखना चाहेगा, तो उसे उस विद्या को उसी तरह सीखना पड़ेगा जिस तरह एक निर्धन--महा-कङ्गाल--को सीखना पड़ता है। उस गुण को प्राप्त करने में उसकी धनाढ्यता ज़रा भी काम न देगी। वह उसे मोल नहीं ले सकता। जब उसे धन के बल से वीणा बजाने के समान एक साधारण गुण भी नहीं मिल सकता, तब शान्ति, शुद्धता और धीरता आदि पवित्र गुण क्या कभी उसे मिल सकते हैं ? कभी नहीं।

जिसके पास आवश्यकता से थोड़ा भी अधिक धन हो जाता है, वह अपने आपको, अर्थात् यों कहिए कि अपनी आत्मा को, अपने वश में नहीं रख सकता। क्योंकि सन्तोष न होने के कारण वह उस धन को प्रति-दिन बढ़ाने का यत्न करता है।

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