पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१०२

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अयोध्या कांड रामवनगमन [दा०] रामचद्र लक्ष्मण सहित, घर राखे दशरत्थ । बिदा किया ननसार' को, सँग शत्रुघ्न भरत्थ ॥ १॥ तोटक छद] TEAM दशरथ महा मन मोद रये । तिन बोलि वशिष्ठहिं मंत्र लये ॥ दिन एक कहो शुभ शोभ रयो । हम चाहत रामहिं राज दयो ॥२॥ यह बात भरत्थ की मातु सुनी। पठॐ वन रामहिं बुद्धि गुनी ॥ तेहिं मदिर मै नृप से विनयो । वर देहु, हतो हमको जो दयो ॥३॥ ता'नृप बात कही हँसि हेरि हियो।। “वर माँगि सुलोचनि मैं जो दियो" ।। "नृपता सुविशेष भरत्थ लहैं। वरषै वन चौदह राम रहै" ॥४॥ [पद्धटिका छ द] यह बात लगी उर वज्र तूल । सम्म हिय फाट्यो ज्यो जीरन दुकूल ॥ वल उठि चले विपिन कहँ सुनत राम । तजि तात मात तिय बधु धाम ॥५॥ (१) ननसार = ननहाल ।