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पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/११७

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लक्ष्मण स्यों उठिकै रघुराई। पाँयन जाय परे दोउ भाई ॥६३॥ मातनि कठ उठाय लगाये। प्रान मनेो मृत देहनि पाये । आइ मिली तब सीय सभागी। देवर सासुन के पग लागी ॥४॥ [तोमर छद] तब पूछियो रघुराइ । सुख है पिता तन माइ॥ । तत्र पुत्र को मुख जोइ । क्रम तै उठीं सब रोइ ॥६५॥ [दोधक छद] आँसुन सौं सब पर्वत धोये । जगम को ? जड जीवहु रोये ॥ सिद्ध बधू सिगरी सुन आई । राजबधू सबई समुझाई ॥६६॥ [मोहन छद] धरि चित्त धीर । गये गग तीर ॥ शुचि है सरीर । पितु तर्पि नीर ॥६॥ [तारक छद] भरत-घर को चलिए अब श्रीरघुराई । जन हों, तुम राज सदा सुखदाई ।। ५.१०५, यह बात कही जल सौ गल भीन्यौ । उठि सोदर पाइँ परे तब तीन्यौ ॥६८॥