पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/११६

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लक्ष्मण का कोप [दडक छद] लक्ष्मण-मारि डारौं अनुज समेत यहि खेत आजु, मेटि पारौं दीरघ वचन निज गुर को सीतानाथ सीता साथ बैठे देखि छत्रतर, यहि सुख शोषौं शोक सबही के उर को । केसौदास, सविलास बीस बिसे बास होइ, कैकेयी के अग अग शोक पुत्रजुर को । रघुराज जू को साज सकल छिडाइ लेउँ भरतहि आजु राज देउँ प्रेत-पुर कौ ॥६०॥ दो०] एक राज मैं प्रगट जहँ, द्वै प्रभु केसवदास । तहाँ बसत है रैनदिन, मूरतिवत विनास ॥ ६१॥ राम-भरत-मिलन [कुसुमविचित्रा छौंद] तब सबै सेना वहि थल राखी । मुनि जन लीन्हे सँग अभिलाखी ॥ रघुपति के चरनन सिर नाये । उन हँसि कै गहि कठ लगाये ।। ६२ ॥ [दोधक छद] .. 'मातु सबै मिलिबे कहँ आई। ज्यौं सुत कौं सुरभी सु लवाई ॥