पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१३०

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५ ती र त्रिशिरा शिर (८० ) 16 [ मनोरमा छद] वृष के खरदूषण' ज्यों खरदूषण । तब दूरि किये रवि के कुल-भूषण ।। व गदशत्रु त्रिदोष ज्यौं दूरि करै वर । त्रिशिरा शिर त्यौं रघुन दन के शर ॥४३॥ भजि शूर्पणखा गइ रावण पै तब । त्रिशिरा खरदूषण नाश कहे सब ॥ तब शूर्पणखा मुख बात सबै सुनि । उठि रावण गो सु-मरीच जहाँ मुनि ॥४४|| रावण-मारीच-संवाद [मनोरमा छद] रावण बात कही सिगरी त्यों । शूर्पणखाहिं विरूप करी ज्या ।। रावण-एकहि राम अनेक सँहारे। । दूषण स्यों त्रिशिरा खर मारे ॥४५॥ .. तू अब होहि सहायक मेरौ । हौं बहुते गुण मानिहीं तेरौ॥ जो हरि) सीतहि ल्यावन पैहै । वै भ्रमि शोकन ही मरि जैहैं ॥४६॥ (१) खरदषण = सूर्य। (२) गदशत्र = वैद्य ।