यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
सुंदर कांड
हनुमान् लंका-गमन
[दो०] उदधि नाकपतिशत्रु' को, उदित जानि बलवत ।
अतरिच्छ ही लच्छि पद, अच्छ छुयो हनुमत ॥ १॥
बीच गये सुरसा मिली, और सिंहिका नारि ।
लीलि लियो हनुमत तेहि, कढ़े उदर कहँ फारि ॥ २ ॥
[ तारक छद ]
कछु राति गये करि दश दशा सी।
पुर माँझ चले वनराजि विलासी ॥
जब ही हनुमत चले तजि शंका ।
मग रोकि रही तिय है तब लंका ॥३॥
हनुमान्-लंका-संवाद
लका--कहि मोहि उलंघि चले तुम को हो ?
अति सूच्छम रूप धरे मन माहौ !
पठये केहि कारण, कौन चले हौ ?
सुर है। किधौं कोऊ सुरेश भले हौ ॥४॥
हनुमान्-–हम वानर हैं रघुनाथ पठाये ।
तिनकी तरुनी अवलोकन आये ।।
(१) नाकपतिशत्रु = मैनाक ।