पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१५३

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लका--हति मोहि महामति भीतर जैए ।
हनुमान्--तरुणीहि हते कब लौ सुख पैए ॥५॥
लका-- तुम मारेहि पै पुर पैठन पैहो ।
हठ कोटि करौ घरहीं फिरि जैहो।।
हनुमत वली तेहि थापर मारी ।
तजि देह भई तव ही वर नारी ॥६॥
लका--[चौ०] धनदपुरी हौं रावन लीन्ही ।
वहु विधि पापन के रस भीनी ।।
चतुरानन चित चितन कीन्हो ।
वरु करुणा करि मो कहँ दीन्हो ||७||
जव दमकठ सिया हरि लैहै।
हरि' हनुमत विलोकन ऐहै ।।
जब वह तोहि हतै तजि सका।
तन प्रभु होइ विभीपण लका ॥८॥
चलन लगौ जवही तब कीजौ।
मृतकशरीरहि पावक दीजौ ।।
यह कहि जात भई वह नारी ।
मव नगरी हनुमत निहारी ॥९॥
रावण-शयनागार
तव हरि रावण सोवत देख्यो ।
मणिमय पलका की छवि लेख्यो ।।


( १ ) हरि = वदर ।