पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१५४

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तहँ तरुनी बहु भॉतिन गावै ।
बिच बिच श्रावझ बीन बजावै ॥१०॥
मृतक चिता पर मानहु सोहै ।
चहुँ दिशि प्रेतवधू मन मोहैं ।
जहँ जहँ जाइ तहाँ दुख दूनो ।
सिय बिन है सिगरौ घर सूनो ॥११॥
[भुजगप्रयात छद]
कहूँ किन्नरी किन्नरी'लै बजावै ।
सुरी आसुरी बॉसुरी गीत गावै ॥
कहूँ यक्षिणी पक्षिणी को पढ़ावै । १११
नगी कन्यका पन्नगी को नचावै ॥१२॥
पियै एक होली गुहै एक माला ।
बनी एक बाला नचै चित्रशाला ||
कहूँ कोकिला कोक की तारिका को ।
पढ़ावै सुश्रा लै सुकी सारिका को ॥१३॥
फिरयो देखिकै राजशाला सभा कों।
रह्यो रीझिकै बाटिका की प्रभा कों॥
फिरयो ओर चौहूँ चितै शुद्ध गीता ।।
बिलोकी भली सिसिपा-मूल सीता ॥१४॥



(१) किन्नरी = सारंगी।