पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ११३ )

एक रक मारि क्यों बडा कलक लीजई।
बुद सोखि गो कहा महा समुद्र छीजई॥५९॥
तूल तेल बोरि बारि जोरि जोरि बाससी।
लै अपार रार' ऊन दून सूत सौ कसी॥
पूछ पौनपूत की संवारि बारि दी जहीं।
अग को घटाइ कै उडाइ जात भो तहीं॥६०॥
[चचरी छद]
धाम धामनि आगि की बहु ज्वाल-माल बिराजहीं।
पौन के झकझोर तै झंझरी झरोखन भ्राजहीं॥
बाजि बारन सारिका सुक मोर जोरन भाजहीं।
छुद्र ज्यो बिपदाहि आवत छोडि जात न लाजहीं॥६१॥
लंका-दाह
[भुजगप्रयात छद]
जटी अग्निज्वाला अटा सेत है यौं।
सरत्काल के मेघ सध्या समै ज्यौं॥
लगी ज्वाल धूमावली नील राजै।
मनौ स्वर्ण की किंकिणी नाग साजै॥६२॥
कहूँ रैनिचारी गहे ज्योति गाढ़े।
मनौ ईस-रोषाग्नि मै काम डाढ़े॥
कहूँ कामिनी ज्वालमालानि भारै।
तजै लाल सारी अलकार तोरै॥६३॥


(१) रार = राल, धूप।