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पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१६७

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लचकि लचकि जात सेस के असेस फन,
भागि गई भोगवती', अतल, वितल, तल॥७७॥
[दो०]बल-सांगर लछिमन सहित, कपि-सागर रनधीर।
यस सागर रघुनाथ जू, मेले सागर तीर॥७८॥
समुद्र वर्णन ?
[विजय छंद]
भूति विभूति पियूपहु की विष,
ईस सरीर कि पाय बियो है।
है किधों केसव कस्यप को घर,
देव अदेवन के मन मोहै॥
सत हियौ कि बसै हरि सतत,
सोभ अन त कहै, कवि को है।
चदन नीर तरग तरगित,
नागर कोउ कि सागर सोहै॥७९॥
[गीतिका छद]
जलजाल काल कराल माल तिमिगिलादिक-सों बसै।
उर लोभ छोभ विमोह कोह सकाम ज्यौ खल को लसै॥
बहु सपदा युत जानिए अति पातकी सम लेखिए।
कोउ माँगनो अरु पाहुनो नहिं नीर पीवत देखिए॥८०॥
(इति सुदर काड)


(१) मोगवती = पातालपुरी। (२) माँगना = मगन, तुक (३) पाहुनी = मेहमान, अतिथि।