पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१७५

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अजहूॅ रघुनाथ-प्रताप की बात तुम्है दसकठ न जानि परी।
तेलनि तूलनि पूँछ जरी' न जरी, जरी लक जराइ जरी॥२६॥
रावण--
नील सुखेन हनू उनके, नल और सबै कपि-पुज तिहारे।
आठहु आठ दिसा बलि दै, अपनो पदु लै पितु जालगि मारे।
तोसे सपूतहि जाइ के बालि अपूतन की पदवी पगु धारे।
अगद सग लै मेरौ सबै दल, आजुहि क्यों न हनै बपमारे॥२७॥
[दो०] जो सुत अपने बाप को बैर न लेइ प्रकास।
तासौं जीवत हो मर्यो, लोग कहें तजि त्रास॥२८॥
अगद--इनको बिलगु न मानिए, सुनि रावन पन आधु।
पानी पावक पवन प्रभु, ज्यौ असाधु त्यौ साधु॥२९॥
रावण--[द्रुतविलबित छ द]
उरसि अगद लाज कछू गहौ। जनकघातक-बात वृथा कहौ।
सहित लक्ष्मण रामहिं सहरौ। सकल वानरराज तुम्हैं करो॥३०॥
[निशिपालिका छद]
अगद--सत्रु, सम, मित्र हम चित्त पहिचानहीं।
दूत-विधि नूत कबहूँ न उर आनहीं।
आप मुख देखि अभिलाष अभिलाषाहू।
राखि भुज सीस, तब और कहँ राखहू॥३१॥


(१) जरी = जड़ी हुई, युक्त। (२) नूत = नूतन, नवीन।