पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१८१

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[दो०] कालसर्प के कवल तै, छोरत जिनकौ नाम।
बँधे ते ब्राह्मण-वचन बस, माया-सर्पहि राम॥५६॥
[स्वागता छद]
पन्नगारि तवहीं तहँ आये। व्याल-जाल सब मारि भगाये।
लंक मॉझ तबहीं गइ सीता। सुभ्र देह अवलोकि सुगीता॥५७॥
रावण प्रति महोदर का उपदेश
महोदर--कहै जो कोऊ हितवत बानी।
कहौ सो तासौ अति दुःखदानी॥
गुनौ न दावै बहुधा कुदावै।
सुधी तबै साधत मौन भावै॥२८॥
कही सुकाचार्य्य सु हौ कहौ जू।
सदा तुम्हारौ हित सग्रह। जू॥
नृपाल भू मैं विधि चारि जानौ।
सुनौ महाराज सबै वखानौं॥१९॥
[भुजगप्रयात छद]
यहै लोक एकै सदा साधि जानै।
वली वेनु ज्यों आपुही ईस मानै॥
करै साधना एक परलोकही को।
हरिश्चद्र जैसे गये दै मही को॥६॥
दुहूँ लोक कों एक साधै सयाने।
विदेहीन ज्यौ वेद वानी बखानै॥