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पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१८२

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नठै' लोक दोऊ हठी एक ऐसे।
त्रिशंकै हँसै ज्यौं भलेऊ अनैसे॥६॥
[दो०] चहूँ राज को मै कहूँ, तुमसो राजचरित्र।
रुचै सो कीजै चित्त मै, चिंतहु मित्र अमित्र॥२॥
चारि भाँति मत्री कहे, चारि भॉति के मत्र।
मोहिं सुनाया सुक्रजू, सोधि सोधि सब तत्र॥६॥
[छप्पै]
एक राज के काज हतै निज कारज काजे।
जैसे सुरथ निकारि सबै मंत्री सुख साजे॥
एक राज के काज आपने काज बिगारत।
जैसे लोचन हानि सही कवि बलिहि निवारत॥
एक प्रभु समेत अपनो भलो करत दासरथि दूत ज्यौ।
एक अपनो अरु प्रभु कौ बुरो करत रावरो पूत ज्यौं॥४॥
[दो०] मंत्र जो चारि प्रकार के, मत्रिन के जे प्रमान।
बिष से, दाड़िमबीज से, गुड़ से नींब समान॥६५॥
[चद्रवर्त्म छद]
राजनीति मत तत्व समुझिए।
देस काल गुनि युद्ध अरुझिए।
मन्नि मित्र अरि को गुन गहिए।
लोक लोक अपलोक न बहिए॥६६॥


(१) नढैं = नष्ट करैं।