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पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१८४

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राम-विलाप
लोचन बाहु तुहीं धनु मेरौ। तू बल विक्रम, वारक हेरौं॥
तो बिन हौं पल प्रान न राखौं। सत्य कहौं, कछु झूठ न भाखौं॥७२॥
मोहिं रही इतनी मन सका। देन न पायी विभीषण लका॥
बोलि उठौ प्रभु को प्रन पारो। नातरु होत है मो मुख कारो॥७३॥
मैं बिनउँ रघुनाथ करौ अब। देव‌ तजौ परिवेदन को सब॥
औषधि लै निसि मैं फिर आवहिं। केसव सो सब साथ जियावहिं॥७४
सोदर सूर को देखतही मुख। रावन के सिगरे पुरवै सुख॥
बोल सुने हनुमंत कर्यो पनु। कूदि गयो जहँ ओषधि को बनु॥७५॥
[षट्पद]
राम--करि आदित्य अदृष्ट नष्ट यम करौं अष्ट बसु।
रुद्रन बोरि समुद्र करौं गधर्व सर्व पसु॥
बलित अबेर कुबेर बलिहि गहि देउँ इंद्र अब।
विद्याधरनि अविद्य करौं बिन सिद्ध सिद्धि सब॥
निजु होहि दासि दिति की अदिति अनिल अनल मिटि जाइ जल।
सुनि सूरज सूरज उदत ही करौं असुर ससार बल॥७६॥
हनुमंत-पैज
[भुजगप्रयात छ द]
हन्यो विघ्नकारी बली बीर बामैं।
गयो शीघ्रगामी गये एक यामैं।
चल्यो लै सबै पर्वत के प्रणामैं।
न जान्यौ विशल्यौषधी कौन तामै॥७७॥