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श्रीराम तहीं उर लाइ लियो।
सुंध्यो शिर आशिष कोटि दियो।
कोलाहल यूथप यूथ कियो।
लका हहली दसकठ हियो॥८३॥
रावण प्रति कुंभकर्ण का उपदेश
[मनोरमा छ द]
कुंभकर्ण--सुनिए कुलभूषण देव-विदूषन।
बहु आजिविराजिन' के तुम पूषन॥
भव-भूप जे चारि पदारथ साधत।
तिनकौं कबहूँ नहि बाधक बाधत॥८४॥
[पकजवाटिका छंद]
धर्म करत अति अर्थ बढावत।
सतति हित रति कोबिद गावत॥
सतति उपजत ही निसि-बासर।
साधत तन मन मुक्ति महीधर॥८५॥
[दो०] राजा अरु युवराज जग, प्रोहित मत्री मित्र।
कामी कुटिल न सेइए, कृपण कृतघ्न अमित्र॥८६॥
[घनाक्षरी]
कामी बामी झूँठ क्रोधी कोढ़ी कुलद्वेषी खलु
कातर कृतघ्नी मित्रदोषी द्विजद्रोहिए।
(१) आजि = समर ( में )+ विराजी = शोभा पानेवाले = शूर- वीर लोग। (२) महीधर = राजा।