पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१९०

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[गीतिका छद]
रन इंद्रजीत अजीत लक्ष्मण अस्त्र-शस्त्रनि संहरै।
शर एक एक अनेक मारत बुद मदर ज्यौ परै॥
तब कोपि राघव शत्रु को सिर बान तीच्छन उद्धरयो।
दसकध संध्यहिं को किया सिर जाइ अंजुलि मैं परयो॥१०२॥
रन मारि लक्ष्मण मेघनादहि स्वच्छ शंख बजाइयो।
कहि साधु साधु समेत इद्रहि देवता सब आइयो।
'कछु माँगिए वर वीर सत्वर' 'भक्ति श्रीरघुनाथ की।'
पहिराइ माल बिसाल अर्चहि कै गये सुभ गाथ की॥१०३॥
[कलहस छंद]
हति इद्रजीत कहँ लक्ष्मण आये।
हँसि रामचद्र बहुधा उर लाये॥
सुनि मित्र पुत्र सुभ सादर मेरे।
कहि कौन कौन सुमिरौं गुन तेरे॥१०४॥
[दो०]नींद भूख अरु प्यास को, जो न साधते वीर॥
सीतहि क्यो हम पावते, सुनु लछिमन रनधीर॥१०५॥
रावण-विलाप
[दडक]
रावण--आजु आदित्य जल पवन पावक प्रबल,
चंद आनंदमय ताप जग को हरौ।