हनूमत जू पूँछ सो लाइ लीन्हो
न जान्यौ कबै सिंधु मैं डारि दीन्हो॥९६॥
जहीं काल के केतु सो ताल लीनो।
करथो रामजू हस्त पादादि हीनो॥
चल्यो लोटतै बाइ वक़ै कुचाली।
उड्यो मुंड लै बान ज्यो मुडमाली॥९७॥
तहीं स्वर्ग के दुदुभी दीह बाजै।
कर्यो पुष्प की वृष्टि जै देव गाजै॥
दसग्रीव शोकै ग्रस्यो लोकहारी।
भयो लक ही मध्य आतंक भारी॥९८॥
दो०] तबही गयो निकुभिला, होम हेत इंद्रजीत।
कह्यो तहाँ रघुनाथ सौं, मतो विभीषन मीत॥९९॥
मेघनाद-वध
[चचरी छद]
रामचद्र बिदा कर्यो तब वेगि लक्ष्मण वीर को।
त्यो विभीषण जामवतहि सग अगद धीर को॥
नील लै नल केसरी हनुमत अ तक ज्यौ चले।
वेगि जाइ निकुभिला थल यज्ञ के सिगरे दले॥१०॥
जामवतहि मारि द्वै सर तीनि अगद छेदियो।
चारि मारि विभीषनै हनुमत पंच सुबेधियो॥
एक एक अनेक बानर जाइ लक्ष्मण सो भिरयो।
अध अंधक युद्ध ज्यों भव से जुर्यो भव ही हर्यो॥१०१॥
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