पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२०४

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आरक्तपत्रा शुभि चित्र पुत्री मनौ विराजै अति चारुवेषा।
संपूर्ण सिंदूर प्रभा सुमंडी गणेश भालस्थल चंद्ररेखा॥१६०॥

[विजय छद]
है मणिदर्पण मै प्रतिबिब कि प्रीति हिये अनुरक्त अभीता।
पुज प्रताप मै कीरति सी तप-तेजन मै मनौ सिद्धि विनीता॥
ज्यौ रघुनाथ तिहारियै भक्ति लसै उर केसव के शुभ गीता।
त्यौं अवलोकिय आनंदकद हुतासन मध्य सबासन सीता॥१६१॥
[दो०] इद्र बरुण यम सिद्ध सब, धर्म सहित धनपाल।
ब्रह्म रुद्र लै दसरथहि, आय गये तेहि काल॥१६२॥

[वसततिलका छद]
अग्नि--श्री रामच द्र यह संतत शुद्ध सीता।
ब्रह्मादि देव सब गावत शुभ्र गीता॥
हूजै कृपालु गहिजै जनकात्मजाया।
योगीश ईश तुम हौ यह योगमाया॥१६३॥
श्रीरामचद्र हँसि अक लगाय लीन्हों।
ससार--साक्षि शुभ पावक आनि दीन्हों।
देवान दुंदुभि बजाय सुगीत गाये।
त्रैलोक्य लोचन चकोरनि चित्र भाये॥१६४॥

स्वदेश-प्रत्यागम
[दो०]बानर राच्छस रिच्छ सब, मित्र कलत्र समेत।
पुष्पक चढ़ि रघुनाथ जू, चले अवधि के हेत॥१६५॥