[चचरी छद]
सेतु सीतहि सोभना दरसाइ पचवटी गये।
पाइँ लागि अगस्त्य के पुनि अत्रियौ ते बिदा भये॥
चित्रकूट विलोकि कै तब ही प्रयाग बिलोकियो।
भरद्वाज वसैं जहाँ जिनतै न पावन है बियो॥१६६॥
त्रिवेणी-वर्णन
[चद्रकला]
भवसागर की जनु सेतु उजागर, सुंदरता सिगरी बस की।
तिहुँ देवन की युति सी दरसै गति सोखै त्रिदोखन के रस की॥
कहि केसव वेदत्रयी मति सी, परितापत्रयी तल को मसकी।
सब वदैं त्रिकाल त्रिलोक त्रिवेणिहिं केतु त्रिविक्रम' के जस की॥१६७॥
भरद्वाज आश्रम वर्णन
[दडक]
लक्ष्मण--केसादास मृगज बछेरू चूसै वाधिनीन,
चाटत सुरभि बाघ-बालक-वदन है।
(१) विष्णु का वह विराट् रूप त्रिविक्रम कहलाता है जिसमें उन्होंने तीन ही पग में सारी पृथ्वी नापकर बलि को पाताल भेजा था। इसी अवसर पर ब्रह्माजी ने अपने कमडलु के जल से विष्णु भगवान् के पॉव धोए थे जिससे त्रिपथगा गगा प्रवाहित हुई। त्रिवेणी में गगाजी की प्रधानता विशेष रूप से परिलक्षित होती है, इसी से वह विष्णु के यश की पताका है।