पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२२८

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[तोमर छद]
बहु शब्द बचक जानि। अलि पश्यतोहर' मानि।
नर छाँहई अपवित्र। शर खग निर्दय मित्र॥१०९॥
[सो०] गुण तजि औगुणजाल, गहत नित्यप्रति चालनी।
पुश्चली ति तेहिकाल, एकै कीरति जानिबे॥११०॥
[दो०] धनद लोक सुरलोक मय, सप्तलोक के साज।
सप्तद्वीपवति महि बसी, रामचंद्र के राज॥१११॥
दशसहस्र दश सै बरस, रसा बसी यहि साज।
स्वर्ग नर्क के मग थके, रामचद्र के राज॥११२॥
सीता-त्याग
[सुंदरी छद]
एक समय रघुनाथ महामति।
सीतहिं देखि सगर्भ बढी रति॥
सुंदरि माँगु जो जी महँ भावत।
मो मन तो निरखे सुख पावत ॥११३॥
सीता--जो तुम होत प्रसन्न महामति।
मेरे बढ़ै तुमही सो सदा रति॥
अंतर की सब बात निरतर।
जानत हौ सब की सबतें पर॥११४॥


(१) पश्यतोहर = देखते देखते चुरानेवाला। (२) ति - तिय; स्त्री।