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पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२३०

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[संयुता छंद]
बहु भाँति वदनता करी। हँसि बोलियो न दया धरी।
हमते कछू द्विजदोष है। जेहिते कियो प्रभु रोष है॥१२०॥
[दो०] मनसा वाचा कर्मणा, हम सेवक सुनु तात।
कौन दोष नहिं बोलियतु, ज्यौं कहि आये बात॥१२१॥
[सयुता छंद]
राम--कहिए कहा न कही परै। कहिए तौ ज्यौ बहुतै डरै।
तब दूत बात सबै कही। बहु भाँति देह दशा दही॥१२२॥
भरत-[दो०] सदा शुद्ध अति जानकी,निंदति त्यौं खलजाल।
जैसे श्रुतिहि सुभाव ही, पाखंडी सब काल॥१२३॥
भव अपवादनि तें तज्यो, त्यौं चाहत सीताहिं।
ज्यौं जग के संयोग तैं, योगी जन समताहिं॥१२४॥
[झूलना छंद]
मन मानि कै अति शुद्ध सीतहिं आनियो निज धाम।
अवलोकि पावक अंक ज्यौं रविअंक पकजदाम॥
केहि भाँति ताहि निकारिहौ अपवाद बादि बखानि।
शिव ब्रह्म धर्म समेत श्रीपितु साखि बोलेहु आनि॥१२५॥
यमनादि के अपवाद क्यों द्विज छोडिहैं कपिलाहि।
विरहीन को दुख देत क्यौं हर डारि चंद्रकलाहि॥
यह है असत्य जो होइगो अपवाद सत्य सु नाथ।
प्रभु छोड़ि शुद्ध सुधा न पीवहु आपने विष हाथ॥१२६॥