सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१८१)

[दो०] प्रिय पावनि प्रियवादिनी, पतिव्रता अति शुद्ध।
जग को गुरु अरु गुर्ब्बिणी' छाँड़त वेदविरुद्ध॥१२७॥
वे माता वैसे पिता, तुमसों भैया पाइ।
भरत भये अपवाद के, भाजन भूतल आइ॥१२८॥
[हरिलीला छंद]
राम--साँची कही भरत बात सबै सुजान।
सीता सदा परम शुद्ध कृपानिधान॥
मेरी कछू अबहिं इच्छ यहै सो हेरि।
मोकों हतौ बहुरि बात कही जो फेरि॥१२९॥
[दोधक छद]
लक्ष्मण--दूषत जैन सदा शुभ गगा।
छोड़हुगे वह तुंग तरगा॥
मायहि निंदत हैं सब योगी।
क्यों तजिहैं भव भूपति भोगी॥१३०॥
ग्यारसि निंदत है मठधारी।
भावति हैं हरिभक्तनि भारी॥
निंदत है तव नामनि बामी।
का कहिए तुम अतर्यामी॥१३१॥
[दो०] तुलसी को मानत प्रिया, गौतमतिय अति अज्ञ।
सीता को छोडन कहौ, कैसे कै सर्वज्ञ॥१३२॥


(१) गुर्ब्बिणी = गर्भवती। (२) ग्यारसि = एकादशी। (३) वामी = वाममार्गी।